Saturday 7 March 2009

होली की यादें - दाऊदनगर की

  ( सुजीत चौधरी - होली की यादें दाऊदनगर की .दाऊदनगर इस कथा को शायद सुजीत से बेहतर कोई और नहीं कह सकता.)
हरेक साल फागुन में एक खास खुशबू भरा हवा का झोंका मुझे यह एहसास दिला जाता है की होली आने वाली है । इस हवा के झोंके में एक खास खुशबू होती है , आम के परिपक्व मंजर, नीम के फूल और न जाने किन किन फूल पत्तों की। मैंने इस खुशबू के झोंके को दिल्ली, चेन्नई , मुंबई और बंगलोर में महसूस किया है। यह झोंका अपने साथ बचपन की होली की यादें ले आती है। मुनीर नियाजी के ग़ज़ल का एक शेर याद आ जाता है जिसका वातावरण तो अलग है लेकिन भावना समान है, " लाई है फिर उड़ाके गए मौसमों की बास , बरखा की रुत का कहर है और हम हैं दोस्तों , उस बेवफा का शहर है और हम हैं दोस्तों।"

यह फागुनी बयार और इसकी बास मेरे मन को गुदगुदा जाता है , जेहन को सहला जाता है और ऐसा लगता है जैसे किसी ने अपने नर्म हथेलियों से मेरे गालों पर गुलाल मल दिया हो। साथ ही याद आ जाती हैं दाऊद नगर की होली की स्मृतियाँ । वसंत पंचमी के बाद मुहल्ले में शाम या रात को कुछ लोग होरी गाना शुरू कर देते थे। ढोलक और झाल बजता । इसमे कृष्ण और राधा और बृज का उल्लेख होता था। फागुन कृष्ण पक्ष के दूज के दिन अगजा (होलिका दहन का स्थान ) को विधिवत स्थापित किया जाता था । उस स्थान पर रेड़ के पौधे (अंगरेजी में केस्टर ) को लगाया जाता था। उसके बाद हम बच्चे घर-घर घूम कर लकड़ी माँगा करते थे । मज़े की बात है की हम लकड़ी चुराया भी करते थे और यह मान्य था। रात को मेरे घर का नौकर पहरा देता था की कोई हमारे घर का गेट न चुरा ले जाए। मैंने सुना था की एक बार होली में हमारा गेट अगजा की आहुति बन गया था ।। मुझे याद है की दिन दहाड़े हम लोग एक पुरानी हवेली जिसका मालिक नहीं था और हवेली खंडहर में तब्दील हो चुकी थी , उससे बड़ी बड़ी शहतीरें चुरा लाये थे । हमने बड़े मुश्किल से अपने नन्हे कन्धों पर उन शहतीरों को झेला था ।
जैसे जैसे होली नजदीक आती , होरी के गीतों का लहजा और विषय बदल जाता । " बिरज में होली खेलें कान्हा " से " गोरी ऐसी पातर , जैसे लचके लवंगिया के दार ।" फागुन पूर्णिमा के शाम या रात (मुहूर्त के मुताबिक ) अगजा जलाई जाती थी । इसमे मांगी और चुराई छुपाई गयी लकडियों के साथ खरीब की फसल जैसे मटर, गेहूं , चना भी जलाये जाते और उसे प्रसाद की भावना से खाया जाता था। कुछ लोग , जिनके परिवार में किसी को मिर्गी जैसी मर्ज़ या भूत प्रेत की छाया की आशंका रहती वे आंते की लिट्टी / रोटी बनाकर लाते और अगजा में उसे जलाकर रोगी को खिलाते । इतनी पावन थी अगजा की आग !
अगजा में जली वस्तुओं की राख से शुरुआत होती धूर-खेल । लोग उस राख को एक दूसरे को लगाते और सुबह तक यह खेल मिटटी कीचड में विकशित हो जाती।
कीचड से होली की शुरुआत होती फिर हम नहाते और फिर रंग भरी होली शुरू होती। तरह तरह के रंग ! एक दानेदार रंग आता था जिसे हथेलियों में थोड़ा सा पानी मिलाकर गालों पर लगाया जाता था जिसे छुटने में कई दिन लग जाते । हम उसे एस्ट्रा कहते थे। बाज़ार में जब एनामेल आया तो लोगों ने सिल्वर / गोल्डन रंग का इस्तमाल शुरू किया । इसे छुटने के लिए स्पिरिट या केरासिन तेल की जरूरत होती। जब सूरज पूरा जवान हो जाता और दोपहर ढलने को होती तो हम घर लौटते । हर साल की तरह बुरे रंगों से होली खेलने के लिए फटकार पड़ती । शाम को हम कुरता पजामा पहन गुलाल से होली खेलते । लोग एक दूसरे के घर जाते , मिलते , खाते पीते। हाँ , भंग भोग सुबह से ही शुरू हो जाता था । जब शहर में इकलौती ' अंग्रेज़ी शराब की दूकान " खुली, तो विदेशी का भी प्रयोग शुरू हुआ। खाने में मांस , कटहल और ओल की सब्जी , दही वादा और घुग्नी परोसे जाते । कुछ खट्टा भी जिससे नशा उतरे।

दूसरे दिन दाऊद नगर में होता ' झूमता ' ।
झूमते के दिन हरेक मुहल्ले में तैयारी होती झुंड बनाने , रंगों के लिए बड़े पात्र जैसे ड्रम , पीतल की बड़ी बड़ी पिचकारियाँ और बैल गाड़ी । एक मुहल्ले का झूमता सारे मुहल्लों से गुजरता जैसे विभिन्न मुहल्लों के बीच प्रतियोगिता हो रही हो ।। कौन किस पर कितना रंग डाले ! अगर सड़क या गलियों में आमना सामना होता तो जैसे रंगों से मार ! मुहल्लों से गुजरते हुए हम उन मुहल्लों में रहने वालों खास कर छतों - मुंडेरों पर इकट्टी नारियों से होली खेलते । वे ऊपर से हम पर पानी डालतीं और हम नीचें से पिचकारियों की धार से वार करते । हम सारा दिन भींगते हुए होली खेलते और हमारा सफर बाज़ार पहुंचकर ख़त्म होता जहाँ सभी झूमता इकट्ठा होते। भंग का नशा अपनी पराकास्था पर होता । लोग एक दूसरे का कपड़ा फाड़ते , गले मिलते और होली गाते , " अंखियाँ भईल लाले -लाल , एक नींद सुते दे पतोहिया " या " जोगीरा सररर आ रा रा रा रा " जिसमे मजाक और अश्लील बातें होतीं ।

होली और झूमता के बाद कई दिनों तक नशे का शुरूर रहता और बदन -चेहरे पर रंगों की लज्ज़त । हम फिर इंतज़ार करते अगले साल की होली की ।। अब तो वह होली ही नहीं , उसकी यादों से होली मनाते हैं । गालिब का शेर याद आता है , " ....अब वो रानाईये ज़माल कहाँ , वो शबों - रोजों माहो साल कहाँ .....फिक्र्रे दुनिया में सर खपाता हूँ , मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ ।"


( होली की इन स्मृतियों को पुनर्जीवित करने में दाऊद नगर के मित्र प्रिय गणेश जी ने मदद की। मित्र संजीव ने भूले बिसरे शेरो को याद दिलाया । उन्हें धन्यवाद ! सबों को होली की शुभ कामनाएं ! )


1 comment:

  1. सुजीत
    लगता है की होली अपने पुरे मगही स्वरुप में दाऊदनगर में मनाई जाती है.जिस होली का जिक्र और दाऊदनगर के जिस अगजे की चर्चा आपने की है , थोड़े फेर बदल के साथ होली का वही स्वरुप मेरे गाँव और इलाके में है.
    हाँ मगह के ग्रामीण इलाकों में अगजा फूकने के बाद ,गाँव के किशोर और युवा अगज़े में अपनी लुत्ती ( दो हाथ लम्बे तार में कपडे को बाँध कर ,किरासन तेल में पूरी तरह से भीगाया हुआ , जिसे जलाने के बाद हाथ में पकड़ कर घुमाया जा सके ) को जलाकर पंक्तिबध्ध होकर इस ख़ास दिशा में घुमाते हुए गाँव के सीमान्त ( खंधे के अंतिम छोर पर ) पर फ़ेंक आतें हैं.
    रात्री में हर गाँव के अग्जे से सैंकडों की संख्या में जलती लुतकी यह शमा देखते हीं बनता है. और चूंकि सभी गाँव में अगजा इस समय हीं फूँका जाता है तो चारों दिशाओं में निकटवर्ती गाँव ओं की गोल घेरे में घूमती सैंकडों लुत्तियाँ ,अद्भुत दृश्य बनाती है.
    इस बीच अगजा के पास लगातार होली के गीत पूरी श्रध्हा और उत्साह के साथ ढोलक और झाल के साथ सवेरा होने तक लगातार गाये जाते हैं.
    होली के इस खांटी मगही स्वरुप का जिक्र मैंने होली के नगरीय और शास्त्रीय विमर्श में नहीं पाया .
    होली और इसके अपने अनोखे गीत ,
    विषय और आपकी कूवत ,दोनों के लिहाजन कहा जाय तो ,वह एक अलग लेख की मांग करता है.
    दोस्त ,मनमोहक यादों के उस दौर में हम सब को ले जाने के लिए शुक्रिया .

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