Friday 2 April 2010

मेरे गाँव की नयी सड़क और पैदल यात्रा का रोमांस

मेरे गाँव की नयी सड़क और पैदल यात्रा का रोमांस




मेरा गाँव खरभैया, पटना जिले के पूर्व और दक्षिण में , पटना से लगभग बीस किलो मीटर की दूरी पर स्थित है. गुजरे जमाने की अगर बात करें तो तो फतुहा मेरे इलाके का निकटतम बाजार रहा है जो मेरे गाँव से उत्तर पूर्व में तक़रीबन 12 -14 किलोमीटर की दूरी पर गंगाजी के तट पर स्थित है .ब्रिटिश हुकूमत ने 1865 -70के बीच पटना को कलकत्ता और दिल्ली से सीधे रेलमार्ग से जोड़ दिया था. हिन्दुस्तान की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता से रेल द्वारा बने इस सीधे संपर्क ने इस इलाके के आम लोगों को एका -एक बाहरी दुनिया से जोड़ दिया.जिस किसी का गाँव की जिंदगी और व्यवस्था से मन उचटा वह सीधा फतुहा से हावड़ा ( कलकत्ता ) की गाडी पकड़ता था.रेल संपर्क ग्रामीण समाज में अवसरों की सौगात लेकर आया . कलकत्ता शहर औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का केंद्र था और मगध से आये भांति भांति के लोगों के लिए तरह तरह के मुकाम तय कर रहा था. चतुराई , साहस और उद्दमिता के बदौलत , कलकत्ता और बंगाल के कमाई से रंक से राजा बनने के ढेरों उदाहरण हुए. बंगाल की कमाई ने पारंपरिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाये . एकाध पीढ़ी में हीं आम रैय्यत और यहाँ तक की विपन्न आर्थिक स्थिति से निकल कर लोग बाग़ जमींदारों की श्रेणी में आ गए.

मगध और खास कर पटना ( नालंदा सहित ) जिला धान और दलहन ख़ास कर मसूर की खेती के लिए मशहूर रहा है. फतुहा और बाढ़ ,पटना के पूरव में पहले गंगाजी के नदी मार्ग से और बाद में नए रेल मार्ग से अनाज व्यापार का स्थापित केंद्र रहा है. रेल मार्ग ,कलकत्ता - बंगाल की कमाई और मगध की ततकालीन व्यवस्था के घाल मेल में लोगों को ऊपर उठने का मौका मिला.1870 से लेकर 1947 तक का समय इस इलाके में काफी बदलाव का समय था.औपनिवेशिक शासन के इस दौर में ,यहाँ कई पोजिटिव चीजें हो रहीं थी.



मगध का अनाज -खासकर कई किस्म के चावल ( कलम दान , बाद्शाह्भोग, बासमती आदि ) तथा मसूर की छांटी कलकत्ता से लेकर ढाका तक भेजा जाता था.1923 में कलकत्ते की मार्टिन कंपनी ने फतुहा से इस्लामपुर , 42 किलोमीटर तक छोटी रेल लाईन ( नैरो गेज ) निर्माण किया. फलतः लोग और साज- सामान की ढुलाई और आसान हो गयी. 1923 से 1976 तक निर्बाध ढंग से निजी कंपनी की मार्टिन लाईट रेल सेवा चलती रही.छोटी लाइन की रेल सेवा पर भारत की आजादी का कोई असर नहीं पड़ा. जैसे गुलाम भारत में यह सेवा थी वैसी हीं आजाद भारत में . 1923 के मौनचेस्टर , इंगलैंड के बने भाफ इंजन से गाडी दुलकी चाल में चलती रही. 1976 में फल्गु और पुनपुन के बाढ़ ने छोटी लाइन की पटरी को सिन्गरिअवन और फतुहा के बीच बुरी तरह से बर्बाद कर दिया . ट्रेन सेवा ठप्प हुयी . तबतक मार्टिन कंपनी अपने बुरे दौर में थी . ट्रेन सेवा को बहाल करना तकरीवन दिवालिया हो चुके उस कंपनी के बस की बात नहीं थी. 1980 में भारत सरकार ने इस रेल सेवा को अपने अधीन लिया. रेल लाइन को पुनर स्थापित किया और 1980 -81 में Eastern Railway के तहत छोटी लाइन की रेल सेवा पुनः शुरू हुयी. 1983 में फिर बाढ़ आई , पटरियां छतिग्रस्त हुयी और यह रेल सेवा बंद हो गयी. लेकिन 2003 दिसंबर में सरकार ने इस रेल मार्ग को बड़ी लाईन में तब्दील किया और पटना कलकत्ता में रेल लाइन में जोड़ कर रेल सेवा को पुनः बहाल कर दिया. अब आप चाहें तो इस्लामपुर , हिलसा या दनियावां में मगध एक्सप्रेस में बैठें और सीधे दिल्ली में उतरें. ऐसा लगता है की अगर ब्रिटिश काल में फतुहा -इस्लामपुर मार्टिन लाईट रेल मगहिया चावल और मसूर छांटी दाल कलकत्ता भेजने के लिए बनी थी तो इस दौर में मगहिया कुशल और अकुशल श्रमिकों को उतारी भारत खास कर दिल्ली भेजने के लिए बनायीं गयी है.

गाँव से बस अथवा ट्रेन पकड़ने के लिए सिन्गरिआमा या दनिआमा तक की तक़रीबन पांच से छः किलो मीटर की दूरी पैदल पार करने के अलावा उपाय कोई और उपाय अभी तक नहीं था.

फतुहा इस्लाम पुर मार्टिन रेल लाइन के बनने से लेकर आज तक तक़रीबन नब्बे सालों से हम सब पांच किलोमीटर पैदल चल कर ट्रेन या बस पकड़ते रहें हैं. इलाके के लोग अभी तक कच्ची सड़क से भी मरहूम रहे. पढ़े लिखे लोग अक्सरहां कहते थे की दुनिया चाँद पर पहुँच गयी पर हम लोग बैलगाड़ी युग में भी प्रवेश नहीं कर पाए हैं. लोगबाग पैदल , नयी बहु डोली पर , मुसीबत में बूढ़े और बीमार खटिया पर और सामान बैल और भैंसे के पीठ पर ( pack bullocks ).
बरसात में नदी और पईन पार करने का बखेड़ा अलग से.

पांच किलोमीटर के इस रास्ते को पार करने में पूरा घंटा भर लग जाता था. अगर साथ में बच्चें हों तो डेढ़ घंटा भी लग सकता था.यह अलग बात है की आते - जाते सहयात्री जरूर मिल जाते. गाँव गिराम के तमाम किस्से कहानियों के साथ. सुबह में सिन्गरिआमा स्टेसन जाने में मुंह पर तेज धुप पड़ती तो शाम में स्टेसन से घर आते तेज पछिया हवा और चेहरे पर बेरकी की धुप. न सबेरे चैन न शाम को आफियत .सड़क की आस में पीढियां गुजर गयीं. बरसात में और बुरा हाल होता था . रास्ते में नदी के तेज बहाव से अगर खान्ढ़ ( breach in the traditional embankment ) हो जाए तो तब तो आफत नहीं जुलुम हो जाता था.बूढ़े , बच्चे , महिलायें कैसे पार पाती होंगीं ?.लगता है के भगवान् बुद्ध से लेकर आज तक मगध के अधिकतर इलाकों में , ग्रामीण क्षेत्रों में ,आवा- गमन और यातायात की बुनियादी सुविधायों में शायद हीं कोई तबदीली आई है.पांच किलोमीटर के इस रास्ते को दुरूह कहना अंडर statement लगता है.

बिहार में नए निजाम ने मेरे गाँव और इलाके पर मेहर बानी की और सिन्गरिआमा से सीधे खरभैया तक सड़क बनाना शुरू किया है. सिर्फ साथ दिनों में गाँव तक मिटटी का काम हो गया है.ऊपर में ( टॉप surface ) तीस फीट की चौडाई है .छोटी कार को छोड़ सब तरह की गाडी और ट्रक्टर इस अर्ध निर्मित सड़क पर दौड़ाने लगी है. खरभैया से सिन्गरिआमा- दनिआमा तक सबेरे शाम नियमित ट्रेकर / जीप सेवा शुरू हो गयी है . भांति भांति के सामान लादे ट्रैक्टर इस सड़क पर दिन भर दिखाते है. मेरे गाँव वासियों की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं है. ऐसा लगता है की लोग बाग़ बिल वजह फतुहा , दनिआमा की सैर करने लगें हैं. मेरा पूरा गाँव मोबाइल हो गया है.


लेकिन पांच किलोमीटर की इस अनिवार्य यात्रा से मुक्ति तो जरूर मिलगयी है. लेकिन कई चीजें खो गयी हईं हैं.

पैदल आने जाने में राह चलते गाँव जेवार के लोगों से मुलाक़ात हो जाती थी. कुशल छेम से लेकर शादी व्याह तक की बातें होती थीं. शाम होते होते इलाके भर में बात फ़ैल जाती थी की कौन परदेशी अकेले घर आया है की बाल बच्चों के साथ आया है. स्टेसन से तक़रीबन घर तक घंटे भर की पैदल यात्रा में , कल्पना करें सहयात्री से कितने तरह की बातें हो सकती हैं. घंटा डेढ़ घंटे की यह पैदल यात्रा आपकी शायद ही कोई बात हो जिसे निजी रहने देती थी.प्रणाम पाती कुशल क्षेम का दौर रास्ते भर चलता रहता क्योंकि लोग बाग़ मिलते रहते.

अब तो आप जिससे मिलना चाहें उसीसे मुलाक़ात होगी बशर्ते की सामने वाला भी मिलना चाहे और उसे पटना फतुहा जाने की जल्दी न हो.

गाड़ियों में बंद लोग राह चलते एक दूसरे से नहीं मिलते. रास्ते के मोड़ , नाव से नदी पार करने का स्मरण, टिमटिम बारिश , झपसी , रास्ते में अंधड़ –पानी, रास्ते भर की गुजरे जमाने की यादें . अब जब पैदल पांच किलोमीटर चलने की अनिवार्यता ख़तम हो गयी है तो पैदल रास्ते का रोमांस और अब सड़क बनाने से उस रोमांच से स्थायी रूप से वंचित होने गम अक्सरहां रातों में मेरी नींद उड़ा देता है.

Thursday 1 April 2010

बिहार की मैट्रिक परीक्षा - एक महत्वपूर्ण राईट्स डी पैसेज

सुजीत चौधरी

( मैट्रिक की परीक्षा और उसके इर्द गिर्द लिपटा उपक्रम बिहार के छात्रों के लिए कई अर्थों में एक महत्व पूर्ण Rites de Paasaage है.अनोखे अनुभवों की मत्वपूर्ण थाती . मित्र सुजीत से मैंने आग्रह किया की मैट्रिक परीक्षा से सम्बंधित अपने अनुभव हम सब को बताएं.अपने लेख का शीर्षक उन्होंने दिया था मैट्रिक परीक्षा या अग्नि परीक्षा .मैंने उसे बदल दिया - बिहार की मैट्रिक परीक्षा - एक महत्वपूर्ण राईट्स डी पैसेज .लेख को पढ़ें और अपने अनुभव साझा करें.)

मित्र कौशल ने बताया की बिहार में मैट्रिक की परीक्षा शुरू हो गयी है और इस वर्ष तकरीबन दस लाख विद्यार्थी परीक्षा दे रहे हैं. चुंकी वे बिहार बोर्ड से पास नहीं कियें हैं इसलिए उन्हें ' मैट्रिक परीक्षा का आँखों देखा अनुभव नहीं है. उन्होंने आग्रह किया की मैं कुछ अपनी स्मृतियों को बाटूँ . खैर सबों का अपना अपना व्यक्तिगत और वैयक्तिक अनुभव होता है और शायद उससे तात्कालिक परिस्थिति का एक आंकड़ा मिले. ऐतिहासिक रूप से बिहार में शिक्षण व्यवस्था का कुछ विश्लेषण हो सके. हैं, स्पष्ट रूप से इस विश्लेषण की जिम्मेदारी मैं मित्र कौशल पर सौपता हूँ. कौशल जी ने एक महत्वपूर्ण बात कही की यह परीक्षा विद्यार्थियों के लिए ' rites de passage ' होता है. खैर, उन्होंने स्मृतियों के ' labyrinth ' में इस 'passage ' को ढूँढने की जिम्मेदारी दी है तो मन घटनाओं से ज्यादा उन अनुभूतियों को याद करता है.
बात सत्तर के दशक की कर रहा हूँ. मैट्रिक की परीक्षा आज की तरह नहीं होती थी. आज, जैसे बच्चे परेशान रहते हैं, परीक्षा से ज्यादा अपने पिता-माता की अपेक्षाओं से, माता पीछे पड़ती हैं तो पिता झुंझलाए-बौखलाए से रहते हैं. जैसे एक दौड़ हो रही हो . हाँ हमारे समय में माहौल बदल जाता था. शिक्षक समुदाय की प्रतिस्था बढ जाती थी और headmaster लोगों का दबदबा ऊँचा हो जाता था, पुलिस महकमे में बंदोबस्त की शुरुआत हो जाती थी. उसी बीच बिचौलिए भी उभर कर आते थे जो परीक्षा में पास करवाने का ठेका लेते थे. सुनता था की पैसा देने पर परीक्षा कोई और दे सकता है (impersonation ) या एक स्पेशल रूम में परीक्षा होगी जहाँ हरेक तरह की छूट मिलेगी on -line dictation के साथ . मैं यह एक कस्बाई अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ. खैर शायद परिस्थिति ज्यादा नहीं बदली. सुना की मेरे जान -पहचान के एक शिक्षक जो बाद में headmaster बन गए थे वे पकडे गए ; उनके घर कॉपियां लिखी जा रही थी तेज लिखने वाले professionals द्वारा हाँ , फर्क यह है की पुलिस का छापा पड़ा जो शायद हमारे समय में नहीं होता था. कुछ वर्षों पहले उत्तरी बिहार के किसी जिले में हमारे एक आईएस मित्र जो जिन्होंने काफी कडाई कर रखी थी उनपर जानलेवे हमले की कोशिश भी हुई थी. उस दौर में एक भीड़ मानसिकता थी, शिक्षा पर टूटते सामंतवादी और उभरते पूंजीवादी विचारों का अपना-अपना प्रभाव था. गुंडागर्दी तो एक सार्वभौमिक सत्य था ही.
मेरे अपने दो अनुभव हैं और मैं इसे मैं बिना INTELECUALISE (शायद मैं करने में असफल ही रहूँ) करते हुए पेश कर रहा हूँ.
पहला अनुभव मेरे बड़े भाई के परीक्षा का. उसकी परीक्षा थी औरंगाबाद में. यह था हमारा जिला. भाई मेरा तेज था और उसके कई नखरे थे जैसे काफी (कहवा) पीना ताकि वह देर रात तक जग कर पढ़ सके. मैं उससे तो साल छोटा हूँ मगर मैं उस समय आठवें क्लास में था. एक कमरा किराये पर लिया गया आज के पेईंग गेस्ट की तरह. एक पारिवारिक मित्र जो परिवार के सदस्य की तरह थे (बाद में वह शिक्क्षक बन गए) उन्होंने सारी व्यवस्था की. मेरे नाना जी गुजर गए थे और मेरी नानी की जिम्मेदारी थी मेरे भाई की ठीक ठाक परीक्षा दिलवाने की . वही सज्जन मेरे भाई को औरंगाबाद ले गए और मैं गया साथ देने और कुछ मदद करने जैसे पानी पिलाना, कछुआ छाप जलाना, किताबें - कॉपियां ढोना आदि - आदि .मुझे अभी भी याद है की मैं चुरा-चुराकर MILKMAID चाटता था. वे हमें वहां छोड़ कर आश्वश्त होकर लौट गए यह कहकर की हरेक तीन-चार रोज पर वह आते रहेंगे. रोज मैं भाई के साथ रिक्से से स्कूल तक जाता , ब्रेक के वक़्त नाश्ता देता - पानी पिलाता ,और उसदिन की परीक्षा के बाद उसके साथ डेरा आता. सारा दिन उस गर्म दुपहरी में उस स्कूल के बाहर गुजारता: भीड़ देखते हुए, तथाकथित 'गार्जियन' पर्चे बनाते और किसी खिड़की तक पहुँचाने की कोशिश करते हुए, पुलिस लोगों को एक काल्पनिक दायरे के बाहर लाठी से खदेतते हुए. उसी भीड़ में मेरे मोहल्ले का एक लड़का मिल गया जो औरंगाबाद के किसी कॉलेज में इंटर की पदाई कर रहा था. वह अपने छोटे भाई के लिए वहां आ-जा रहा था. एक दिन उसने मुझसे कहा की चल थोडा शहर देख कर आते हैं. वह स्कूल शहर (उस समय हमारे लिए औरंगाबाद शहर ही था , उसके अलावा मैंने उस उम्र में सिर्फ गया और रांची देखा-घुमा था) से बाहर था और मैंने औरंगाबाद शहर ज्यादा देखा नहीं था. घुमते-घुमते हमने एक होटल में नाश्ता किया और फिर घूमने लगे. घुमते-घुमते वह एक गली में गया जहाँ घर की जगह छोटे छोटे कमरे थे और रंग- बिरंगे , कुछ चमकदार तो कुछ भद्दे-बेरंग पैबंद लगे परदे लटक रहे थे. दरवाजे पर औरते खडी थीं. उनके इशारे, हाव-भाव से मुझे समझते देर न लगी की यह 'रंडीखाना' है. मुझे बड़ा अटपटा लगा. वह लड़का एक कमरे की तरफ बढ़ा. मेरे पास कोई चारा नहीं था सिवाय उसके पीछे=पीछे चलने के अलावा. उसने आगे जाकर कुछ बातें की , उस औरत ने मुझे देखा और कहा,"तू भी आ जा" . मैं झेंप गया. उस लड़के ने मुझसे कहा तुम बाहर थोडा इंतजार करो मैं अभी आता हूँ. वह इंतजार, वह बेबसी और शर्म्गिन्दगी (उम्र के कारण) मैं कैसे भूल सकता हूँ. रास्ता जानता न था की लौट जाऊं. लग रहा था की मैं भटका हुआ हूँ और लोग-बाग एक अजीब नजर से देख रहे हों जैसे मैं कोई उपहास का पात्र हूँ. मगही की एक बोली है " हे धरती मैया , तू फट जा की हम समां जाईं." ऐसा ही कुछ लग रहा था मुझे. खैर पांच-दस मिनट में फारिग होकर वह बाहर निकला और कहा की पांच रूपये में बात बन गयी और मिजाज भी बन गया. तो मित्र यह था मेरा एक अनुभव जो मैट्रिक परीक्षा से जुडी है. हाँ आज से पहले मैंने यह बात किसी को भी नहीं बताई, अपने भाई को भी नहीं जो मेरे दोस्त, मेरे हमदम की तरह है. यह बात मित्र कौशल ने उगलवा ली, इस ब्लॉग के बहाने.
दूसरा अनुभव मेरी अपनी परीक्षा की. मेरा सेंटर पड़ा औरंगाबाद से और आगे : मदनपुर. यह एक छोटी सी जगह थी: शायद ब्लाक के स्तर की. तब तक मेरी नानी को मेरी परीक्षा में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी. भाई उनका दुलारा नाती था. हाँ अपने सामर्थ्य के मुताबिक उन्होंने पैसे देने का आश्वाशन जरूर दिया. अपनी परीक्षा की व्यवस्था मेरी ही जिम्मेदारी थी. मेरा एक सहपाठी दोस्त था : कलाम. मुस्लिम और जाति का रंगरेज. उसका घर मेरे घर के पास ही था. उसके परिवार में सभी लोग , औरतें -मर्द और बच्चे 'रंगरेजी' के काम में लगे रहते . बच्चे और औरतें कपडे रंगते-सुखाते, कलफ लगाते तो बड़े उन कपड़ों पर अलग-अलग चमकीले रंगों से लकड़ी के 'ठेपों' से जिनपर तरह-तरह के डिजाईन बने रहते थे, उसकी छपाई किया करते थे. यह एक तरह का ' ब्लाक -प्रिंटिंग' था और कलाम के बड़े , संयुक्त परिवार का सारा आर्थिक आधार था: रंगरेजी. गरीब औरतें जो थोडा पैसे से सादी सूती कपडे पर रंगरेजी करवाते थे : साड़ी या . दुपट्टे बनवाते , सस्ता, सुन्दर और टिकाऊ. खासकर सारे लोग नवाब साहेब और घोड़ा साईं (जिसकी चर्चा मैंने पुराने ब्लॉग पर की थी ) के मजारों पर चढ़ने वाले चादर. यही था व्यवसाय उसके परिवार का. . यह एक बड़ा परिवार था . कलाम गरीब था मगर पढने में तेज था खासकर गणित में. वह अपने परिवार में पहला लड़का था जो मैट्रिक की परीक्षा दे रहा था. उससे परिवार को काफी उम्मीदें थीं. मैंने निर्णय लिया की कलाम के साथ ही मदनपुर में रहूँगा और परीक्षा दूंगा. मेरे परिवार को भी कोई आपत्ती नहीं हुई. इस तरह कलाम के दादा जी बन गए अभिवावक और बावर्ची. नानी ने कुछ नमकीन -कुछ मीठे बना दिए जो दस-पंद्रह दिन चल सके नाश्ते के बतौर. केरोसीन तेल के स्टोव , बर्तन, राशन अदि की व्वस्था हुई और मैं, कलाम और उसके दादा चल पड़े मदनपुर को . हम बस से मदनपुर पहुंचे और डेरा लिया किसी मुस्लिम सज्जन के घर में. शौचालय और नहाने की व्यवस्था नहीं थी. कुछ दूर पर किसी दफ्तर के आगे एक चापा कल (handpipe ) था वहां से पानी लाना पड़ता था. अहले सुबह हम वहीँ नहाया करते थे. झाड़ियों के पीछे किसी तरह शौच करना मेरे लिए एक नया तजुर्बा था. हमें पढने देने के लिए कलाम के दादा जी खुद पानी भर लाते. उनके हाथों बने पराठें और आलू की सब्जी अभी भी याद है मुझे. पहली बार मैंने चौकोना पराठा देखा और खाया था. शाम को जब थोड़ी ठंडी हवा चलती और आसमान लालियाता तो हम पास के एक वीरान से जगह पर जाते और पत्थरों पर बैठते. परीक्षा के दौरान पुलिस का बंदोबस्त तो था ही फिर भी पुर्जे अन्दर-बाहर आ-जा रहे थे. इसे हम कहते थे ' चोरी चलना' . खैर हमारे न तो तो कोई हमदर्द थे न दिलावर दोस्त-मुहीम जो मदद करते . मदद की जरूरत थी या नहीं; यह बात मैं गोपनीय ही रखता हूँ. हमारे साथ थे तो सिर्फ कलाम के दादा : अनपढ़ पर बड़े जिगर वाले जिसमे सिर्फ दुवाएं भरीं थी : कलाम और मेरे लिए.
बरसों पहले कलाम के दादाजी अल्लाह को प्यारे हो गए, और कलाम एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक बन गया. बहुत तंगी से गुजारा करता है अपना और अपने परिवार का जीवन. बेटा होशियार और पढ़ा-लिखा मगर बेरोजगार. रंगरेजी का काम भी कालांतर में ' बाजारीकरण' की ऐतिहासिक प्ताक्रिया में लुप्त हो गया.
सोचता हूँ कितने अच्छे और प्यारे थे वे दिन, कितना अपनापन था. संकीर्ण सांप्रदायिक या सामाजिक - आर्थिक दुर्भावनाओं से ऊपर थी हमारी भावनाएं :
" न दुनिया का ग़म था न रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी,
ये दौलत भी ले लो , ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी "

:सुजीत चौधरी

Monday 14 September 2009

मगध की अद्भुत पारंपरिक सिंचाई व्यवस्था : आहर - पईन - जोल

मगध क्षेत्र की ऐतिहासिक सांस्कृतिक गौरव और इसके अविछिन्न इतिहास का आधार इस इलाके की अद्भुत सिंचाई व्यस्था रही है.फल्गु , दरधा और पुनपुन मगध क्षेत्र की ये तीन मुख्य नदियाँ हैं. दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहमान ये नदियाँ कई शाखायों में बंटती हुयी ( दरधा फतुहा के समीप पुनपुन नदी में मिल जाती है ) गंगा में मिलती हैं. बराबर पहाड़ के बाद फल्गु कई शाखयों में बँट कर बाढ़ - मोकामा के टाल में समा जाती है . बौद्ध काल से हीं मगध वासियों ने सामुदायिक श्रम से फल्गु ,पुनपुन आदि इन नदियों से सैंकडों छोटी -छोटी शाखायें निकाली जिससे की बरसात में पानी कोसों दूर खेतों तक पंहुचाया जा सके . सामुदायिक श्रम से वाटर हार्वेस्टिंग की एक अद्भुत विधा और तकनीक का विकास ,सह्स्त्रवदियों से इस इलाके में होता रहा ,जो की ब्रिटिश शासन तक चालू रहा.फल्गु /पुनपुन के जल से आहर -पईन - जोल वाली विधा ने धान की खेती पर आधारित वह अर्थव्यस्था तैयार की जिसने मगध साम्राज्य , बौद्ध धर्म के उत्कर्ष ,और पाल कालीन वैभव और संस्कृति को जन्म दिया . सिंचाई की इस विधा की विकास प्रक्रिया ब्रिटिश हुकूमत के प्रारंभिक काल - परमानेंट सेटलमेंट - तक कम से कम चलती रही .औपनिवेशिक शासन काल में इस व्यवस्था में ह्रास शुरू हुआ और आजादी के बाद तो यह व्यवस्था अनाथ हो गयी. नए दौर की नयी हुकूमत , संवेदनहीन नौकरशाही और नये जमाने की सिविल इंजीनियरिंग ने इस कारगर सिंचाई व्यवस्था की ऐसी तैसी कर दी. मगध के ग्रामीणों की सुध बुध लेने वाला कौन था ?

मगध की इस ऐतिहासिक आहर - पईन - जोल की सिचाई विधा पर समुचित शोध अब तक नहीं हुआ है. नदी से चौडी मीलों लम्बी आहर खोदी जाती थी. आहर कई गाँव की धान के खेतों की सिंचाई की जरूरत को पूरा करती थी.आगे चल कर आहर छोटे छोटे चैनल्स में बाँट दी जाती थी .इन छोटी शाखायों को पईन कहते थे. आहर और पईन खोदते समय निकली मिटटी से अलंग बन जाता था जो की अतिवृष्टि में बाढ़ का सामना करने में सहायक होता था. भूक्षेत्र के केंद्र में गाँव और गाँव के चारों तरफ समतल मैदान में खेत ,मगध के ग्रामीण बसाहट की विशेषता है. मगध में खेतों के बड़े समुच्चय ( ५० से १००/२०० एकड़ रकबे ) को एक खंधा कहा जाता है. हर खंधे का अलग नाम होता है- मोमिन्दपुर, बर्कुरवा, धोबिया घाट , सरहद , चकल्दः , बडका आहर ,गोरैया खंधा आदि . समझने के लिहाजन खंधे को आयताकार क्षेत्र के रूप में लिया जा सकता है. अक्सरहां खंधे की चौहद्दी पर चौडी मजबूत अलंग , अलंग से सटे आहर - जिसमें नदी का पानी बड़े आहर से आता है. अलंग में पुल की व्यवस्था जिससे की जरूरत के मुताबिक खंधे में पानी लिया जा सके . खंधे के भीतर चौडे आहर , पतले पईन में बँट जाती है. पतली पईन नदी के पानी को खेत तक पन्हुचाती है.पईन में थोडी दूर पर करिंग चलने के लिए अन्डास निर्धारित होता है. अन्डास पर खम्भा - लाठा से करिंग नाध कर हर खेत में करहा ( छोटी नाली ) द्वारा खेत की सिंचाई होती है.गया जिले के दक्षिणी इलाके में हदहदबा पईन, कहते हैं की एक सौ आठ गाँव की सिंचाई करती है. बरगामा नामधारी पईन ( ऐसा पईन जो बारह गाँव को सिंचित करे ) तो लगता है की मगध के हर क्षेत्र में है.
जोल सिंचाई की इस व्यवस्था का अहम् हिसा रहा है. खंधे के नीचले हिस्से को जोल कहा जाता है. जोल एक तरह से खंधे की सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक reservoir ( छिछला जलाशय ) है. अलंग से सटा आहर ( चौडे आहर को खई भी कहते हैं ) और उससे सटे निचले खेत जोल का हिस्सा माना जाता है. जोल को खंधे का पानी का खजाना भी कहते हैं और इसमें धान की लम्बी और गहरे पानी को सहने वाली प्रजातियाँ लगायी जाती हैं. .खंधे के ऊँचे खेतों में तो धान की रोपनी होती है पर जोल में असाध माह में हीं बिचडे खेत जोत कर छींट दिए जाते हैं. धान की खेती के इस तरीके को बोगहा कहते हैं और बोगहे की खेती अगात ( शुरुयात ) खेती मानी जाती है. बोगहा की खेती में दर- मन ( प्रति एकड़ उपज )कम होता है अतः किसान इसे मजबूरी की फसल मानते हैं.


आहर - पईन - जोल वाली सिंचाई व्यस्था के संदर्भ में छालन और गुयाम - इनको समझना जरूरी है. छालन सिंचाई की वह व्यवस्था है जिसमें नदी का पानी आहर , आहर से पईन होता हुआ करहों ( छोटी-छोटी नालियों द्बारा ) सीधे धान के खेत में पंहुच जाता है.जैसे हीं धान के खेत में पानी पर्याप्त हुआ खेत में आने वाले करहे को बंद कर दिया जाता है.और इस तरह नदी का पानी बिना विशेष मेहनत के हर खेत में पहुँच जाता है. खंधे में पानी प्रयाप्त होने पर पुल का मुंह बंद कर दिया जाता है. छालन की इस व्यवस्था में नदी का पानी ,जमीन के स्वाभाविक ढलान या स्लोप से स्वतः पईन और करहों से होता हुआ खेतों तक पंहुच जाता है. लाठा कुण्डी, करिंग अथवा डीजल सेट की जरूरत नहीं पड़ती है. हर गाँव में कोई न कोई खंधा जरूर ऐसा है जिसके खेतों की सिंचाई छालन से हो जाती है.

गुयाम - सामुदायिक श्रम की एक व्यवस्था है जिसमें गाँव का हर आम-ओ -खास जरूरत पड़ने पर नदी में बाढ़ आदि की परिस्थिति में अलंग / तटबंध की सुरक्षा रात दिन करता है. गुयाम आपात परिस्थिति में आपसी सहयोग और समन्वय का एक अद्भुत उदहारण है.

उपर्युक्त विवरण को मगध की इस ऐतिहासिक आहर -पईन - जोल आधारित सिंचाई व्यस्था का एक प्रारम्भिक स्केच समझा जाय.
इस सिंचाई व्यस्था के कई सामजिक और सिविल इंजीनियरिंग पहलु हैं जिसकी समीक्षा और नए दौर की जरूरतों के अनुसार पुनर्स्थापित करने की जरूरत है.यह कहने की जरूरत नहीं की बिहार के विकास के लिए मगध क्षेत्र का विकास तथा मगध क्षेत्र के विकास के लिए कृषि और ग्रामीण विकास अनिवार्य है . और इस इलाके के कृषि के विकास की शर्त यह है की इस इलाके की पारंपरिक सिंचाई व्यस्था को बहाल किया जाय .

Wednesday 9 September 2009

मगध में समेकित जल प्रबंधन - बाढ और सुखाड़ से निजात कब मिलेगा ?

बिहार के सन्दर्भ में बाढ़ की चर्चा अक्सर होती है. गत वर्ष की कोशी की भयावह बाढ़ की स्मृति अभी शेष है और कोशी अंचल उस प्रलय के पुनरागमन की आशंका से अभी नहीं उबरा हैं. पर बिहार और बाढ़ की चर्चा के दायरे में मगध क्षेत्र की बाढ़ और सुखाड़ की सालाना त्रासदी कभी चर्चा और सरकारी उद्दयम का केंद्र विन्दु नहीं बन पाता है. इस इलाके ( खास कर जहानाबाद , नालन्दा और पटना जिले के दक्षिणी इलाके ) के करोडों बदहाल ग्रामीण इस सालाना त्रासदी को अपनी नियति मान बैठे हैं.

हलाँकि इस साल अतिवृष्टि की वजाय अनावृष्टि का प्रकोप बिहार में ज्यादा रहा है. बिहार के किसान - खासकर मगध के - इस साल के सुखाड़ की तुलना सन १९६७ ( अकाल साल के रूप में जन मानस में जीवित ) के भयानक सूखे और अकाल से तुलना कर रहें हैं.फल्गु, पुनपुन और इनकी सहायक नदियों में आसीन ,माह तक इतना कम पानी ,चालीस- पचास साल में कभी नहीं आया .धान की रोपनी काफी कम हुयी. जैसे -तैसे डीजल सेट से मोरी को जिंदा रखा गया. असीम जीवट वाला मगही किसान बर्षा की उम्मीद में महंगे डीजल से धन रोपनी किया . लेकिन पुरे सावन भादो में कभी इतनी बारिश नहीं हुयी की धान की फसल के लिए प्रयाप्त हो जाए.बहुत इलाकों में वर्षा के अभाव में धान की फसल कड़ी धुप में जल गयी.

लेकिन मौसम का मिजाज देखें ,इधर पिछले सात दिन से कमो वेश पुरे मगध में झीनी झीनी
वर्षा ( झपसी ) हो रही है . धान के खेतों में काम लायक पानी हो गया है.जिन खेतों में धान की रोपाई नहीं हो पायी वहाँ अगात भिठा ( रब्बी फसल ) की तैयारी के लिहाजन भी यह झपसी फायदेमंद है.पिछले साल भीइस इलाके में बाढ़ का प्रकोप रहा था. सैकडो गाँव जलमग्न रहे . धान की फसल बाढ़ में बर्बाद हो गयी. अलंग और नदियों के सुरक्षा तटबंध ध्वस्त हो गए . सरकारी राहत जरूरत मंदों के बीच जरूर वितरित हुआ. किसानों को सोलह हजार रुपये तक फसल बीमा के तहत सरकारी सहायता भी मिली. राहत का अपना महत्व है और सरकारी राहत ने बाढ़ पीड़ित जनता का दुःख दर्द निसंदेह कुछ कम किया .पर बाढ़ का दंश सरकारी सहायता से आगे तक मारक असर करता है.

२००६ और २ ००७ में भी मगध क्षेत्र का यही हिस्सा बाढ़ से प्रभावित था .धन और आजीविका की व्यापक क्षति इस इलाके में लगातार चार - पांच सालों से हो रही है. लगातार बाढ़ और इस साल आसाढ़ ,सावन और भादो में सुखाड़ - त्रासदी से यह इलाका उबर नहीं पा रहा है.कल परसों से अचानक फल्गु ,पुनपुन और इन दोनों की सहायक नदियाँ और शाखाएं पुरे उफान पर है.नदियों का पानी इन के डूब क्षेत्र में फैलने लगा है. नदी तटबंधों पर पानी का भरी दबाव है . छोटानागपुर और हजारीबाग -इन नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र -में अगर और वर्षा होती है या तट बन्ध टूटते हैं तो पुरे इलाके में बाढ़ की आशंका है. हलाँकि अखबारों की शुरुयती रपट सैंकडों गाँव में फ्लैश फ्लड की बात कह रही है.

बिहार में विकास और आधारभूत संरचना के निर्माण की चर्चा , नीति निर्धारण और कार्यान्वयन में मगध क्षेत्र में ठोस दृघ्कालीन जल प्रबंधन की बात अब तक नहीं आई है.फल्गु , पुनपुन और इनकी सहायक नदियों और शाखायों में बरसाती पानी के समेकित प्रबंधन की जरूरत है.बिना इसके इस क्षेत्र के तीन करोड़ लोगों का जीवन खुशहाल नहीं बनाया जा सकता है.सनद रहे की मगध की इसी उर्वर भूमि ने वह आर्थिक आधार मुहैया किया जिसकी गोद में महान मगध साम्राज्य का उदय हुआ. जरूरत इस बात की है की इस इलाके की परम्परगत आहार -पयैन और जोल वाली व्यवस्था को नए सिरे से, नए जमाने की जरूरत के लिहाजन - सिविल इंजीनियरिंग की नवीनतम विधा और तकनीक का इस्तेमाल करते हुए पुनर्स्थापित किया जाय.

पर आसन्न चुनौती यह है की बिहार की वर्तमान राजनीति और शासन व्यवस्था में मगध के जीवन मरण के इस प्रश्न को कैसे लाया जाय ?

Friday 7 August 2009

मगध के ऐतिहासिक धरोहर की हिफाजत कौन करेगा ?

दैनिक जागरण , पटना के हवाले से एक खबर आई है . नालंदा जिला , हिलसा अनुमंडल के थरथरी प्रखंड के राजबाद गाँव में तालाब की खुदाई में प्राचीन भगनाव्शेष मिलाने की खबर आई है . कहने की जरूरत नहीं की इस की मुकम्मल पुरातात्विक उत्खनन और संरक्षण की जरूरत है . यूँ पूरा मगध क्षेत्र हीं गौतम बुद्ध की कर्म भूमि रही है ,पर इस क्षेत्र के गौरवमयी (बुद्ध काल ,मौर्य, गुप्त काल और पाल वंश के पांच सौ साल के शासन काल तक ) इतिहास और सांस्कृतिक धरोहर को द्रिघ्कालीन सुदृढ़ नीति बनाकर सहेजकर रखने और विकसित करने की जरूरत है .इस समाचार को विस्तार से पढें .

तालाब की खुदाई में मिले प्राचीन सभ्यता के avashesh

(नालंदा) Aug 06, 09:42 pm
जिले के हिलसा अनुमंडल के थरथरी प्रखंड क्षेत्र के जैतपुर पंचायत अंतर्गत राजाबाद गांव में सरकारी स्तर पर तालाब खुदाई के दौरान प्राचीन सभ्यता के अवशेष मिले है। ग्रामीणों ने समझदारी दिखाते हुए मशीनों से हो रही तालाब की खुदाई रोक दी है और खुद कुदाल व फावड़े लेकर भग्नावशेषों को बिना क्षति पहुंचाये खुदाई करने में जुट गये है। कार्य की देखरेख कर रहे ग्रामीणों ने विशेष कार्य प्रमंडल के जूनियर इंजीनियर को इस बाबत सूचित कर दिया है लेकिन भग्नावशेषों को मिले दो दिन गुजर गये, अब तक कोई भी सक्षम पदाधिकारी स्पाट पर नहीं पहुंचे है। पुरातत्व विभाग भी इस प्रकरण से अबतक अनजान है। वैसे एएसआई के निदेशक एमजे निकोसे ने कहा कि अगर तालाब खुदाई में प्राचीन स्थापत्य कला के भग्नावशेष मिले है तो वह जल्द ही विशेषज्ञों की एक टीम राजाबाद गांव भेजेंगे। जो तमाम तथ्यों का बारीकि से मुआयना करेगी।बता दें कि राजाबाद अवस्थित तालाब की खुदाई विशेष कार्य प्रमंडल के अधीन हो रही है। खुदाई कार्य अंतिम चरण में पहुंच चुका है। 9.75 लाख की इस कार्य योजना के तहत तालाब को 335 वर्ग फुट क्षेत्र में 7.5 फुट गहरा किया गया है। इसी क्रम में तालाब के पश्चिमी क्षेत्र में 21 फुट लंबा व 16 फुट चौड़ा चबूतरा मिला है। इस चबूतरे में लगी ईटे 14 इंच लंबी, 9 इंच चौड़ी व 2.5 इंच मोटाई की है। चबूतरा पश्चिम से पूरब की ओर झुका हुआ है। चबूतरे के उत्तर-दक्षिण लकड़ी का भीमकाय कालम भी है। इसके अलावा पानी में डूबा एक विशालकाय लकड़ी का खंभा भी है। जिसे ग्रामीणों ने मशीन के सहारे उखाड़ने की कोशिश की लेकिन खंभा टस से मस नहीं हुआ। फिलहाल इस खुदाई कार्य की देखरेख कर रहे संजय सिंह, पंचायत के पूर्व मुखिया श्यामनंदन शर्मा, ललन सिंह, बिन्दा प्रसाद व संतोष कुमार सहित कई अन्य लोगों के नेतृत्व में तालाब की खुदाई करायी जा रही है। ग्रामीणों को कुछ और महत्वपूर्ण अवशेष मिलने की संभावना नजर आ रही है।
Posted by Kaushal Kishore , Kharbhaia , Patna : कौशल किशोर ; खरभैया , तोप , पटना

Friday 10 July 2009

मगध की पाल कालीन मूर्तियाँ - मूर्तिकला के विद्वान् की नज़र से

बिहार - बंगाल की पाल कालीन मूर्ति कला पर एक शोध ग्रन्थ " The Pala- Sena Schools of Architecture " -Sushan Huttington , में मगध की पाल कालीन मूर्ति कला और इस परम्परा के विभिन्न आयामों पर विशद चर्चा है.पोस्ट में दिए गए लिंक पर क्लिक करें तो इस क्षेत्र की मूर्ति कला की समृद्ध परंपरा की एक झलक मिलती है. शोध ग्रन्थ के अंतिम अध्याय ' Concluding Remarks " मगध की पाल कालीन मूर्तियों पर नए नज़रिए से शोध के महत्व को रेखांकित करता है. Shushan का कहना है की बिहार और बंगाल में पाल कालीन तक़रीबन छः हजार मूर्तियाँ इस क्षेत्र को मूर्तिकला के लिहाज़न दुनिया भर में चुनिन्दा स्थानों में शुमार कर सकती हैं. मेरा अनुमान है की सिर्फ मगध क्षेत्र के खेत , खलिहानों , तालाबों , टीलों , गाँव के मंदिरों और गोरैया स्थानों में इससे ज्यादा संख्या में मूर्तियाँ आज भी विद्यमान है.सनद रहे की मूर्तियों की यह संख्या इतिहास और काल के क्रूर हाथों से बचते - बचाते हुए , सामाजिक उपेक्षा ,तस्करी और चोरी के बावजूद बची हुयी हैं. इनमें से अधिकाँश मूर्तियाँ बिना सही पहचान के बरह्म बाबा , गोरैया बाबा और देवी मैया के रूप में इस इलाके में पूजी जा रही हैं.कहने की जरूरत नहीं की इस ऐतिहासिक विरासत को संरक्षण की जरूरत है. अगर जल्द यह कार्य नहीं हुआ तो सदा के लिए यह अनमोल विरासत काल कवलित हो जायेगी .

http://books.google.com/books?id=xLA3AAAAIAAJ&lpg=PA71&dq=satues%20of%20pala%20period&lr=&pg=PA201

पाटलिपुत्र -राजगृह प्राचीन मार्ग के पास बसे गाँव की प्राचीन मूर्तियाँ

I .
II.
III.
IV.

V.
खरभैया , पटना जिले के दनियावां अंचल में स्थित एक गाँव है.यह फतुहा हिलसा रोड के सिंगरिआमा स्टेशन से पांच किलोमीटर पश्चिम स्थित है .ऊपर में दी गयी मूर्तियाँ खरभैया , और उसके निकट वर्ती गाँव , छित्तर बिगहा , सरथुआ और तोप में अलग अलग समय में मिली हैं.
इनमें से कुछ मूर्तियों की पहचान आसान है पर अन्य की पहचान शेष है. तक़रीबन सारी प्रतिमाएँ खंडित है. इनमें से कुछ मूर्ति पहले से ही गाँव के देवी स्थान में संजोग कर रखी हूई हैं और अन्यमूर्तियाँ हाल- साल में तालाब और टीलों की खुदाई में अचानक मिली जिसे नया मंदिर बनाकर रखा गया है. जिन मूर्तियों की पहचान आसान है - जैसे उमा महेश्वर , उसकी पहचान और पूजा शंकर पार्वती के रूप में और अन्य मूर्तियों की पूजा ,गोर्रैया बाबा , बरहम बाबा और देवी माता के रूप में हो रही है.ये सारी मूर्तियाँ काले पत्थर में बनी हूई हैं और पाल कालीन प्रतीत होती हैं. पर इन मूर्तियोंकी जांच परख इतिहास और पुरातात्विक नज़रिए से होना बाकी है.