Saturday 30 May 2009

'फस्सिल में ताडी की बहार' की प्रशंसा में, अपनी कहानी भी ...

'फस्सिल में ताडी की बहार' की प्रशंसा में, अपनी कहानी भी ...

आलेख : संजीव रंजन .

गंगा पार में ताडी का वह इकबाल नहीं जो उसे मगह में हासिल है. यह बात अलग है की मगह के लोग जब गंगा पार जाते हैं तो उन्हें वहाँ की ताडी पंसोर लगती है .और संजीव की जुबां में कहें तो बेमजा .गंगापार , ताड़ ,ताडी , फेंता ( कोआ ) और बचपन के इर्द गिर्द घूमता मनोरंजक आलेख .इसे पढें और लुत्फ़ उठायें.

'फस्सिल में ताडी की बहार' पढ़कर मन रस से सराबोर हो गया. देर तक जेहन में आखिरी पंक्तियाँ टपकती रहीं - 'ताडी मगह का बियर है जो फस्सिल में सरेआम बहता है. आप उन्जरी लगायें और पियें पेट भरकर, यह तरावट भी देगा और शुरूर भी जो इस धरती पर कहीं और नहीं'. मन हुआ कि तत्काल उड़ कर मिटटी की खुश्बुओं-वाली अपने देसी महफिल में जा पहुंचूं, उन्जरी लगाऊं और छक कर पियूं - और तरावट और शुरूर के मौज में वहाँ के कहकहों में डूब जाऊं ...


लेकिन इस कल्पना में एक पेच है - वह यह कि इस परम आनंद के लिए यह अनिवार्य होगा कि मैं गंगा पार ,उत्तर बिहार( कांटी ,मुजफ्फरपुर ), जहां मेरा गाँव व घर है, वहां न जाकर मगह के किसी रसिक दोस्त के यहाँ जाऊं, क्योंकि मुजफ्फरपुर या उस तरफ के किसी कस्बे या गाँव में किसी ने भी - वह सम्बन्धी हो, कि शुभचिंतक, कि आलोचक - अगर जो रस्रंजन करते मुझे देख लेता है तो मेरी खैरियत नहीं - मां पछाड़ खा गिरेगी, पिता की नाक कट जायेगी, ससुर मुंह दिखने लायक नहीं रह जायेंगे, बीबी कच्चा चबा जायेगी - खुलासा की मेरी दुनिया तबाह हो जायेगी. दक्षिण और उत्तर बिहार में ताडी पर इतना भेद मेरी समझ में नहीं आता है. कौशल जब कभी ताडी के महफिल की रस-भरी कहानियाँ सुनाते तब मेरे अन्दर का सर्वविदित आवारा पक्ष अपराधबोध में फंस जाता. अब मैं कौशल को कैसे बताता कि उनके इस रसिक परम मित्र को ताडी का कोई इल्म नहीं. मुझे खुद भी ताज्जुब होता है कि कमबख्त क्या कुछ नहीं किया, फिर ताडी क्यों नहीं पिया? मुझे लगता है कि यह दोष मेरा नहीं, उत्तर बिहार का है.

बहरहाल ताडी या या ताड़ के पेड़ से जुडी मेरी जो यादें और अनुभव है वह सब तब की हैं जब मेरी उम्र दस-एक वर्ष से ज्यादा नहीं रही होगी - तब मुजफ्फरपुर के जिस मोहल्ले में मेरा घर है वहां गिने-चुने घर थे, बाकी ज़मीन खाली थी जिसमे ढेर सारे ताड़ और खजूर के पेड़ थे. हर रोज सुबह और शाम को, दोपहर का मुझे याद नहीं, इकहरी काठी का लचकीला, सख्त काला आदमी, खाली बदन दिनचर्या की पिनक में निर्वेग भाव से ताड़ के पेड़ के पास आता, पैडों में फांस लगाता और देखते-देखते ताड़ के पेड़ के बिलकुल ऊपर पत्तों के बीच पहुँच कर खडा हो जाता, अपने कमर से फंसली निकालता और क्या कुछ करता यह मुझे तब पता नहीं चलता, फिर ताडी उतारता, कमर में लबनी को फिट करता और उसी कलाबाजी से नीचे उतर आता. मैं सम्मोहित उसे तब तक देखता रहता जब तक वह वहाँ से चला नहीं जाता. मेरे अलावा कुछ और बच्चे भी इकठ्ठा हो जाते थे क्योंकि अक्सर वह पेडों से लगे फलों को काट कर नीचे गिराता जिनके लिए बच्चों में लूट मच जाती. उन फलों को नारियल कि तरह काट कर भीतर से बेहद मुलायम हल्की मीठास-वाली चीज़ निकालते जिसे वहाँ के लोग-बाग़ 'कोआ' कहते हैं. मैं उस भगदड़ को असहाय देखता रह जाता, मेरे हाथ कभी भी कुछ भी न लगता. एक दिन बिलकुल सुबह के वक़्त, सूरज अभी तरीके से निकला भी नहीं था, कि वह पेड़ पर चढ़ता दिखा. मैं चुपचाप वहां आ पहुंचा - और संयोग कि धबाधब फल गिरने लगे. जब तक वह नीचे उतरता तब तक मैं दूसरी खेप घर पहुंचा आया था. उतर कर उसने मुझे एक नजर फलों को इकठ्ठा करते देखा और उसी निर्वेग भाव से अपने रास्ते चलता बना.

तीसरी खेप ले जकर जब मैं घर पहुंचा तो क्या देखता हूँ कि मेरा बड़ा भाई और मेरी छोटी बहन आश्चर्य और उल्लास में फलों को घेर कर खड़े हैं. थोडी हीं दूर पर पिताजी चेहरे पर रंच-भर विस्मय भाव लिए कुछ इस तरह खड़े थे जैसे मेरी प्रतीक्षा कर रहें हों. उन्होंने छूटते हीं पूछा - यह तुम क्या सब ले आया है? मैंने बगैर नज़र मिलाये कहा कि 'कोआ' है, और फिर पता नहीं कहाँ से हिम्मत और बुद्धि आ गयी कि कह बैठा - सुबह में खाने से बड़ा फायदा करता है. पिताजी हंसने लगे, फिर पूछा - किसने बताया कि बड़ा फायदा करता है? और इसको काटेगा कौन? यह विकट समस्या थी. इतने में माँ आ गयी. पिता ने कहा - देखो, क्या ले आया है! चूँकि मैं इस इस बीच माँ से अक्सर 'कोआ' का ज़िक्र करता था और बाज़ार में कई बार उससे 'कोआ' खरीदने की जिद कर चुका था, वह क्षण-भर में मेरे विकल इच्छा को समझ गयी. उसने पिताजी को हल्के में झिड़कते हुए कहा - अच्छा ठीक है, ज़हर नहीं ले आया है न , बहुत दिन से इसका मन भी था. फिर मेरी तरफ देख कर कहा - कोई बात नहीं. पिता ने फिर टांग अड़ाया - इसको काटेगा कौन? माँ ने तपाक से कहा - इसमें क्या है, थोडी देर में सिवचनरा इधर आएगा हीं, वह काट देगा. 

समस्या का समाधान तो हो गया लेकिन तसल्ली न हुई, इसलिए कि अभी छः-साढे छः का हीं वक़्त था और सिवचनरा नौ बजे तक आता था. दूसरा डर यह भी हो रहा था कि ऐसा न हो कि वह आये हीं नहीं, क्योंकि वह कभी-कभी नहीं भी आता था - सिवचनरा हमारे मुहल्ले का फ्रीलांस, औलराउंडर श्रमिक था जिसके योग्यता-विस्तार और खुश मिजाजी का जोड़ा नहीं था. बागवानी में शाक-सब्जी लगवाना हो कि पुचारा करवाना हो, कि बाज़ार से अच्छे क्वालिटी का ताज़ा मछली-गोश्त मंगवाना हो, या शादी-व्याह में न्योता भिजवाना हो, कि बदन का तोड़-कर मालिश करवाना हो - सिवचनरा का जवाब नहीं था. वह गीत गाता, लोगों से लुत्फ़ लेता, अपना काम बिलकुल तसल्लीबख्श पूरा करता जिसके एवज़ में लोग उसे मेहनताना के इलावा भोजन व चाय भी देते.

बहरहाल सात बजा, साढ़े-सात हुआ, सिलोन रेडियो पर पुराने फ़िल्मी गानों का बेमज़ा प्रोग्राम शुरू हो कर आठ बजे ख़त्म हुआ, लेकिन सिवचनरा न आया. उसके आने में अब भी घंटा भर का वक़्त था. तभी मुझे ख्याल आया कि वह काटेगा किस चीज़ से. मैंने मां से पूछा - मां ने कहा कि जाओ बगल-वाले के यहाँ से 'दाब' मांग कर ले आओ. 'दाब' लेने मेरी छोटी बहन भी मेरे साथ चल पड़ी. वहाँ पूछा गया की 'दाब' का क्या काम है. मेरी बहन ने किस्सा खोल कर रख दिया, और वहाँ के तीन और बच्चे हमारे साथ हो लिए - अब युद्ध क्षेत्र में बस नायक की कमी थी, वह कब आयेगा यही प्रमुख चिंता थी. वक़्त काटे न कट रहा था ... कि सिवचनरा दिखा, हम सब समवेत पुकार उठ्ठे. वह सीधा हमारे पास आया. मां भी बाहर आ गयी. आग्रह किया गया. उसने कहा - अभी त एकदम खिच्चा है. फिर छक्क- छक्क बीचो-बीच वह काटता गया - दोनों हिस्सों के बीच में सिहरता सम्पूर्ण पारदर्शक तरल - निकालने के बाद मटमैले गुलाबी आकृति में गिरफ्तार - मेरे आनंद का पारावार नहीं था - कामना पूरी हुई और मन भरा .

संजीव रंजन





Tuesday 5 May 2009

फस्सिल में ताडी की बहार से आगे : मगध में ताडी महात्मय

प्रिय सुजीत ,आप का अनुमान सही है .ताडी के क्षेत्र में मेरी औकात , तमाम दुसाहसों के वाबजूद चखने से आगे नहीं बढ़ पायी है लेकिन एक बात मैं कहना चाहता हूँ की संवेदना की प्रमाणिकता की एक मात्र कसौटी सिर्फ भोग हुआ यथार्थ ही नहीं होता है .सीधे तौर पर न सही तो आप जैसे मित्रों की सोहबत में क्या - क्या देखा और सुना उन सबको वाचिक परंपरा में ही रहना ठीक है और उन सबका खुलासा व्यवहार कुशलता और नैतिकतता के दृष्टि कोण से भी उचित नहीं होगा .खैर आप के लेख की तारीफ़ में मुझे शब्द कम पड़ने लगते हैं.

जॉर्ज ए ग्रिएर्सन की 1885 में लिखित पुस्तक " बिहार का किसानी जीवन " ( Bihar Peasant Life - Being a discursive catalogue of the surroudings of the people of that province. By George ए. Grierson ) में ताड़ और ताडी पर विस्तृत जानकारी है.-
1. ताडी बेचने वाले को पासी कहते हैं.ताड़ वृक्ष पर चढ़ने के लिए पासी रस्सी के एक मजबूत फंदे का इस्तेमाल करता है जिसे मगध में पसगी या फंदगी कहते हैं. पेड़ पर चढ़ते समय पासी पसगी को पैर में फंसा लेता है जिससे उसके पैर बंध जाते हैं . उसके कमर में बारीक पर मजबूत रस्सी बंधी होती है जिस्ससे वह अपने शरीर को ताड़ में लपटे रहता है .कमर में बंधे रस्से पर वह तिरछे लटका रहता है और जेर्क से पेड़ पर ऊपर चढ़ता है . कमर में बेल्ट नुमा बारीक मजबूत रस्सी बंधी होती है जिसके पीछे में लोहे का एक या दो अन्कुसी (हूक) होता है . अन्कुसी में ताड़ के पेड़ पर से ताडी उतारने के लिए लबनी ( मिटटी के बर्तन )तंगी रहती है.उस लबनी को कमर में इस तरह लटकाए हुए वह पासी पेड़ पर ताडी उतारने के लिए सुबह शाम चढ़ता है.
2. ताड़ वृक्ष को काटने वाले औजार को हंसुली कहते हैं. पूर्व में इसी को हंसुआ कहा जाता है.
3. ताडी रखने के लिए मिटटी के लंबे गोल बर्तन को हथौना , तर कट्टी , और सारण में लबना कहते हैं. बेचने के लिए ताडी की मात्रा नापने हेतु मिटटी के छोटे बर्तन को मगह में नापा और सारण में नपही और दक्षिणी भागलपुर में बररिया और गोल्वाँ कहते हैं. ताड़ पेड़ के नीचे ताडी रखने के लिए पक्की मिटटी के बर्तन को बसना या तर कट्टी कहते हैं.
4.ताड़ वृक्ष को तार या ताड़ तथा इसके रस को ताडी कहते हैं. इस वृक्ष के दो प्रकार हैं- नर वृक्ष जिसमें रोयेंदार फूल ( बलूरी ) होता है उसे बल्तार ,फुल्तार , तिरहुत में फुल्दो और सारण में बलिहा कहते हैं.मादा वृक्ष जो फल धारण करते हैं उसे फल्तार और दक्षिण भागलपुर में फल्ला कहते हैं. मगध में ताड़ के फल को फेंता कहते हैं.ताड़ के नए और अपरिपक्व पेड़ को खंगरा कहते हैं. वसंत ऋतू में ताडी देने वाले पेड़ को बसंती और गरमियों में ताडी दें वाले को जेठुआ कहते हैं. घौदहा पेड़ सालों भर ताडी देता है. घौर बर्षा ऋतु में ताडी देता है.

ग्रिएर्सन साहब की पुस्तक में ताडी चर्चा के बाद लौटते हैं ताडी की बहार पर .
मित्र ,अगर मैं बचपन में लौटता हूँ तो ताडी के इर्द गिर्द काफी बातें याद आती हैं.पासी को घेर कर बगीचे में , अलंग पर और ताड़ के नीचे बैठे पियांकों के बीच मुझे चुपचाप बैठने का लम्बा अनुभव है .पीने वाले , ज्यादातर पडोसी गाओं के , राहगीर और दूधिये रहते थे . वे यूँ तो अक्सर मेरी उपस्थिति को नज़रंदाज़ कर अपने उपक्रम में मशगूल रहते थे . पर मुझ पर अतिरिक्त आर्श्चय मिश्रित आदर भाव रखते थे . अक्सरहां वे बड़े आदर से ताड़ पत्ते से बने दोने में मुझे ताडी पेश भी करते थे . ताडी का स्वाद से ,सच कहूं तो मुझे एक विकर्षण था पर उन पियांकों को बातों में मुझे बहुत रस मिलता था .

दुनियादारी की ढेर सारी बातें , आस पास के जन जीवन से ताल्लुकात कैसे और किस तरह से रखा जाता है , किस्स्गोयी की शैली और लोकगीतों का अनुभव , एक किशोर के तौर पर मैंने इन ताडी पियांकों के बीच ही प्राप्त किया .

इस बात का पहला अनुभव इन्हीं लोगों के बीच हुआ के इन पियांकों के बारे में समाज की राय और इनकी वास्तविक हकीकत में कितना मौलिक अंतर है. वेबजः दुनिया लोगों के बारे में किसी कैसी राय बना लेती है .

जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ पियांकों और पियांकी के ये किस्से मेरे लिए दुर्लभ होते गए . बजह बहुत मामूली - बाद में मेरी उपस्थिति को लोग नज़रअंदाज कर अपने उपक्रम में मशगूल रहने के वजाय बातचीत की दिशा ही बदल देते थे . मेरी उपस्थिति किस्सों की महफिल में व्यवधान पैदा करने लगी थी .मेरा मन आज भी पियांकों के उन किस्सों में डूबने का करता है .

मित्र , आप के लेख ने दूर से हीं सही उस माहौल और उन यादों को फिर से जीवित कर दिया .लोक लाज के दायरे में रहते हुए किस हद तक आप बीती को आप लिख कर साझा करने का निर्णय लेते हैं ,यह मैं आप पर छोड़ता हूँ , पर खुदा और आपके अजीज इस बात के गवाह हैं की आप की गठरी रसदार कथायों से भरी हैं .
ये दिल मांगे मोर.
अर्जी हमारी ,आगे मर्जी आप की .