प्रिय सुजीत ,आप का अनुमान सही है .ताडी के क्षेत्र में मेरी औकात , तमाम दुसाहसों के वाबजूद चखने से आगे नहीं बढ़ पायी है लेकिन एक बात मैं कहना चाहता हूँ की संवेदना की प्रमाणिकता की एक मात्र कसौटी सिर्फ भोग हुआ यथार्थ ही नहीं होता है .सीधे तौर पर न सही तो आप जैसे मित्रों की सोहबत में क्या - क्या देखा और सुना उन सबको वाचिक परंपरा में ही रहना ठीक है और उन सबका खुलासा व्यवहार कुशलता और नैतिकतता के दृष्टि कोण से भी उचित नहीं होगा .खैर आप के लेख की तारीफ़ में मुझे शब्द कम पड़ने लगते हैं.
जॉर्ज ए ग्रिएर्सन की 1885 में लिखित पुस्तक " बिहार का किसानी जीवन " ( Bihar Peasant Life - Being a discursive catalogue of the surroudings of the people of that province. By George ए. Grierson ) में ताड़ और ताडी पर विस्तृत जानकारी है.-
1. ताडी बेचने वाले को पासी कहते हैं.ताड़ वृक्ष पर चढ़ने के लिए पासी रस्सी के एक मजबूत फंदे का इस्तेमाल करता है जिसे मगध में पसगी या फंदगी कहते हैं. पेड़ पर चढ़ते समय पासी पसगी को पैर में फंसा लेता है जिससे उसके पैर बंध जाते हैं . उसके कमर में बारीक पर मजबूत रस्सी बंधी होती है जिस्ससे वह अपने शरीर को ताड़ में लपटे रहता है .कमर में बंधे रस्से पर वह तिरछे लटका रहता है और जेर्क से पेड़ पर ऊपर चढ़ता है . कमर में बेल्ट नुमा बारीक मजबूत रस्सी बंधी होती है जिसके पीछे में लोहे का एक या दो अन्कुसी (हूक) होता है . अन्कुसी में ताड़ के पेड़ पर से ताडी उतारने के लिए लबनी ( मिटटी के बर्तन )तंगी रहती है.उस लबनी को कमर में इस तरह लटकाए हुए वह पासी पेड़ पर ताडी उतारने के लिए सुबह शाम चढ़ता है.
2. ताड़ वृक्ष को काटने वाले औजार को हंसुली कहते हैं. पूर्व में इसी को हंसुआ कहा जाता है.
3. ताडी रखने के लिए मिटटी के लंबे गोल बर्तन को हथौना , तर कट्टी , और सारण में लबना कहते हैं. बेचने के लिए ताडी की मात्रा नापने हेतु मिटटी के छोटे बर्तन को मगह में नापा और सारण में नपही और दक्षिणी भागलपुर में बररिया और गोल्वाँ कहते हैं. ताड़ पेड़ के नीचे ताडी रखने के लिए पक्की मिटटी के बर्तन को बसना या तर कट्टी कहते हैं.
4.ताड़ वृक्ष को तार या ताड़ तथा इसके रस को ताडी कहते हैं. इस वृक्ष के दो प्रकार हैं- नर वृक्ष जिसमें रोयेंदार फूल ( बलूरी ) होता है उसे बल्तार ,फुल्तार , तिरहुत में फुल्दो और सारण में बलिहा कहते हैं.मादा वृक्ष जो फल धारण करते हैं उसे फल्तार और दक्षिण भागलपुर में फल्ला कहते हैं. मगध में ताड़ के फल को फेंता कहते हैं.ताड़ के नए और अपरिपक्व पेड़ को खंगरा कहते हैं. वसंत ऋतू में ताडी देने वाले पेड़ को बसंती और गरमियों में ताडी दें वाले को जेठुआ कहते हैं. घौदहा पेड़ सालों भर ताडी देता है. घौर बर्षा ऋतु में ताडी देता है.
ग्रिएर्सन साहब की पुस्तक में ताडी चर्चा के बाद लौटते हैं ताडी की बहार पर .
मित्र ,अगर मैं बचपन में लौटता हूँ तो ताडी के इर्द गिर्द काफी बातें याद आती हैं.पासी को घेर कर बगीचे में , अलंग पर और ताड़ के नीचे बैठे पियांकों के बीच मुझे चुपचाप बैठने का लम्बा अनुभव है .पीने वाले , ज्यादातर पडोसी गाओं के , राहगीर और दूधिये रहते थे . वे यूँ तो अक्सर मेरी उपस्थिति को नज़रंदाज़ कर अपने उपक्रम में मशगूल रहते थे . पर मुझ पर अतिरिक्त आर्श्चय मिश्रित आदर भाव रखते थे . अक्सरहां वे बड़े आदर से ताड़ पत्ते से बने दोने में मुझे ताडी पेश भी करते थे . ताडी का स्वाद से ,सच कहूं तो मुझे एक विकर्षण था पर उन पियांकों को बातों में मुझे बहुत रस मिलता था .
दुनियादारी की ढेर सारी बातें , आस पास के जन जीवन से ताल्लुकात कैसे और किस तरह से रखा जाता है , किस्स्गोयी की शैली और लोकगीतों का अनुभव , एक किशोर के तौर पर मैंने इन ताडी पियांकों के बीच ही प्राप्त किया .
इस बात का पहला अनुभव इन्हीं लोगों के बीच हुआ के इन पियांकों के बारे में समाज की राय और इनकी वास्तविक हकीकत में कितना मौलिक अंतर है. वेबजः दुनिया लोगों के बारे में किसी कैसी राय बना लेती है .
जैसे जैसे मैं बड़ा हुआ पियांकों और पियांकी के ये किस्से मेरे लिए दुर्लभ होते गए . बजह बहुत मामूली - बाद में मेरी उपस्थिति को लोग नज़रअंदाज कर अपने उपक्रम में मशगूल रहने के वजाय बातचीत की दिशा ही बदल देते थे . मेरी उपस्थिति किस्सों की महफिल में व्यवधान पैदा करने लगी थी .मेरा मन आज भी पियांकों के उन किस्सों में डूबने का करता है .
मित्र , आप के लेख ने दूर से हीं सही उस माहौल और उन यादों को फिर से जीवित कर दिया .लोक लाज के दायरे में रहते हुए किस हद तक आप बीती को आप लिख कर साझा करने का निर्णय लेते हैं ,यह मैं आप पर छोड़ता हूँ , पर खुदा और आपके अजीज इस बात के गवाह हैं की आप की गठरी रसदार कथायों से भरी हैं .
ये दिल मांगे मोर.
अर्जी हमारी ,आगे मर्जी आप की .
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