Thursday, 12 March 2009

फल्गु नदी से गया शहर का नज़ारा , इसवी सन 1824



 
तीर्थ नगरी गया फल्गु नदी के ओर से .शहर का मनोहारी दृश्य .ईस्ट इंडिया कम्पनी के पटना के ओपियम एजेंट ,सर चार्ल्स डी ओइली द्वारा 1824 में कलम और स्याही में बनायी गयी एक कला कृति . साभार ब्रिटिश लाइब्रेरी ,लन्दन
 

Sunday, 8 March 2009

एक खबर - प्राचीन गढ़ के अवशेष मिले नालंदा जिले के गाँव में

( दैनिक जागरण , पटना के सौजन्य से एक खबर .)
चंडी व इस्लामपुर में मिलीं पालयुगीन मूर्तियां
Mar 09, 12:21 am
बिहारशरीफ जिले के इस्लामपुर व चंडी प्रखण्ड में पुरातत्व विभाग की टीम को कई महत्वपूर्ण स्पाट मिले है। इनमें अनुमानत: छठी से सातवीं सदी के किले व मंदिरों के अवशेष तथा हिन्दू व बौद्ध धर्म के आराध्य देवों की प्रतिमाएं शामिल है। एक वर्ग कि.मी. में फैले मिट्टी के गढ़नुमा अवशेष को ले पुरातत्व विभाग विशेष उत्साहित है। पकी मिट्टी से बने स्थापत्य व मूर्तिकला के नमूने इसके पाल युगीन होने की ओर इशारा कर रहे है। इन प्राचीन अवशेषों की स्थिति बेहद सोचनीय है। संरक्षण के अभाव में मूर्तियां व भग्नावशेष इधर-उधर बिखरे पड़े है।
इस्लामपुर प्रखंड के इचहोस गांव में बुद्ध विहार तथा मंदिर के दरवाजे व स्तंभ मिले है। जो स्थापत्य कला के अद्भुत नमूने हैं। इसी प्रखण्ड के वेश्वक गांव में मिट्टी के किले का अवशेष मिले है। जिसके निर्माण काल का अंदाजा छठी व सातवीं सदी लगाया जा रहा है। किले के चारों तरफ बुर्ज, मिट्टी की चहारदीवारी तथा पाल कालीन हिन्दू व बौद्धिष्ट मंदिर के अवशेष स्पष्ट दृष्टिगोचर है। इस क्षेत्र को सुरक्षित रखने की बजाए स्थानीय लोगों ने कब्रिस्तान के लिए अतिक्रमित कर लिया है। इस्लामपुर के ही मुबारकपुर में हिन्दू देवी-देवताओं की पाल कालीन और बौद्ध कालीन मूर्तियां मौजूद है। इनमें बुद्ध, तारा, अवलोकितेश्वर, विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्मा, वाराह व शिव-पार्वती की प्रतिमाएं है। चंडी प्रखण्ड के जैतीपुर मोड़ से चार किमी पश्चिम रूखाईगढ़ में एक वर्ग कि.मी. में फैले 30 फीट ऊंचाई के विशालकाय गढ़ के भग्नावशेष विद्यमान है। यहां पकी मिट्टी की कई प्रतिमाएं भी मिली है। पुरातत्वविदों का कहना है कि यहां मौर्य काल से पहले पाल कालीन (10वीं शताब्दी) की सभ्यता के अवशेष मिलने की प्रबल संभावना है। इसी प्रखंड के तुलसीगढ़ में एक विशालकाय स्तूपाकार संरचना है। जिसकी ऊंचाई लगभग 30 से 35 फीट व व्यास लगभग 60 मीटर है। आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया की टीम को शोध के अनगिनत पहलू मिल चुके है। अब पुरातत्वविदों ने इन सभी संरचनाओं के संरक्षण की जरूरत बतायी है। खोज में जुटी एएसआई की टीम ने राज्य सरकार से इन क्षेत्रों की घेराबंदी की मांग की है।
बता दें कि उपरोक्त सभी स्थलों का निरीक्षण भारतीय पुरातत्व शाखा तीन के अधीक्षक एन.जी.निकोसे ने निर्देश पर किया गया। निरीक्षण में घोड़ा कटोरा में खुदाई कार्य कर रहे पुरातत्वविद डा. सुजीत नयन, डा.जलज तिवारी व आशुतोष शामिल थे।

Saturday, 7 March 2009

1895 में गया शहर - एक नज़ारा


शहर की मुख्य सड़क , चौडी और साफ़ सुथरी 
अलग - अलग शैली और स्थापत्य में बने मकान ,
दूसरे पहर की सुहानी धुप में नहाया खूबसूरत मंदिर 
राहगीर और उनकी वेशभूषा 
सब के सर पर मुरेठा ,
 खुशहाल दिखते लोग . 
पहली नज़र में तबीयत प्रसन्न करने वाली तस्वीर 
आप और कुछ ढूंढ पाए इस तस्वीर में ?
कितना बदला है गया बाद के सौ सालों में ?
क्या - क्या बदला आते जाते लोगों में ?
लिखें तो विमर्श आगे बढेगा .


होली की यादें - दाऊदनगर की

  ( सुजीत चौधरी - होली की यादें दाऊदनगर की .दाऊदनगर इस कथा को शायद सुजीत से बेहतर कोई और नहीं कह सकता.)
हरेक साल फागुन में एक खास खुशबू भरा हवा का झोंका मुझे यह एहसास दिला जाता है की होली आने वाली है । इस हवा के झोंके में एक खास खुशबू होती है , आम के परिपक्व मंजर, नीम के फूल और न जाने किन किन फूल पत्तों की। मैंने इस खुशबू के झोंके को दिल्ली, चेन्नई , मुंबई और बंगलोर में महसूस किया है। यह झोंका अपने साथ बचपन की होली की यादें ले आती है। मुनीर नियाजी के ग़ज़ल का एक शेर याद आ जाता है जिसका वातावरण तो अलग है लेकिन भावना समान है, " लाई है फिर उड़ाके गए मौसमों की बास , बरखा की रुत का कहर है और हम हैं दोस्तों , उस बेवफा का शहर है और हम हैं दोस्तों।"

यह फागुनी बयार और इसकी बास मेरे मन को गुदगुदा जाता है , जेहन को सहला जाता है और ऐसा लगता है जैसे किसी ने अपने नर्म हथेलियों से मेरे गालों पर गुलाल मल दिया हो। साथ ही याद आ जाती हैं दाऊद नगर की होली की स्मृतियाँ । वसंत पंचमी के बाद मुहल्ले में शाम या रात को कुछ लोग होरी गाना शुरू कर देते थे। ढोलक और झाल बजता । इसमे कृष्ण और राधा और बृज का उल्लेख होता था। फागुन कृष्ण पक्ष के दूज के दिन अगजा (होलिका दहन का स्थान ) को विधिवत स्थापित किया जाता था । उस स्थान पर रेड़ के पौधे (अंगरेजी में केस्टर ) को लगाया जाता था। उसके बाद हम बच्चे घर-घर घूम कर लकड़ी माँगा करते थे । मज़े की बात है की हम लकड़ी चुराया भी करते थे और यह मान्य था। रात को मेरे घर का नौकर पहरा देता था की कोई हमारे घर का गेट न चुरा ले जाए। मैंने सुना था की एक बार होली में हमारा गेट अगजा की आहुति बन गया था ।। मुझे याद है की दिन दहाड़े हम लोग एक पुरानी हवेली जिसका मालिक नहीं था और हवेली खंडहर में तब्दील हो चुकी थी , उससे बड़ी बड़ी शहतीरें चुरा लाये थे । हमने बड़े मुश्किल से अपने नन्हे कन्धों पर उन शहतीरों को झेला था ।
जैसे जैसे होली नजदीक आती , होरी के गीतों का लहजा और विषय बदल जाता । " बिरज में होली खेलें कान्हा " से " गोरी ऐसी पातर , जैसे लचके लवंगिया के दार ।" फागुन पूर्णिमा के शाम या रात (मुहूर्त के मुताबिक ) अगजा जलाई जाती थी । इसमे मांगी और चुराई छुपाई गयी लकडियों के साथ खरीब की फसल जैसे मटर, गेहूं , चना भी जलाये जाते और उसे प्रसाद की भावना से खाया जाता था। कुछ लोग , जिनके परिवार में किसी को मिर्गी जैसी मर्ज़ या भूत प्रेत की छाया की आशंका रहती वे आंते की लिट्टी / रोटी बनाकर लाते और अगजा में उसे जलाकर रोगी को खिलाते । इतनी पावन थी अगजा की आग !
अगजा में जली वस्तुओं की राख से शुरुआत होती धूर-खेल । लोग उस राख को एक दूसरे को लगाते और सुबह तक यह खेल मिटटी कीचड में विकशित हो जाती।
कीचड से होली की शुरुआत होती फिर हम नहाते और फिर रंग भरी होली शुरू होती। तरह तरह के रंग ! एक दानेदार रंग आता था जिसे हथेलियों में थोड़ा सा पानी मिलाकर गालों पर लगाया जाता था जिसे छुटने में कई दिन लग जाते । हम उसे एस्ट्रा कहते थे। बाज़ार में जब एनामेल आया तो लोगों ने सिल्वर / गोल्डन रंग का इस्तमाल शुरू किया । इसे छुटने के लिए स्पिरिट या केरासिन तेल की जरूरत होती। जब सूरज पूरा जवान हो जाता और दोपहर ढलने को होती तो हम घर लौटते । हर साल की तरह बुरे रंगों से होली खेलने के लिए फटकार पड़ती । शाम को हम कुरता पजामा पहन गुलाल से होली खेलते । लोग एक दूसरे के घर जाते , मिलते , खाते पीते। हाँ , भंग भोग सुबह से ही शुरू हो जाता था । जब शहर में इकलौती ' अंग्रेज़ी शराब की दूकान " खुली, तो विदेशी का भी प्रयोग शुरू हुआ। खाने में मांस , कटहल और ओल की सब्जी , दही वादा और घुग्नी परोसे जाते । कुछ खट्टा भी जिससे नशा उतरे।

दूसरे दिन दाऊद नगर में होता ' झूमता ' ।
झूमते के दिन हरेक मुहल्ले में तैयारी होती झुंड बनाने , रंगों के लिए बड़े पात्र जैसे ड्रम , पीतल की बड़ी बड़ी पिचकारियाँ और बैल गाड़ी । एक मुहल्ले का झूमता सारे मुहल्लों से गुजरता जैसे विभिन्न मुहल्लों के बीच प्रतियोगिता हो रही हो ।। कौन किस पर कितना रंग डाले ! अगर सड़क या गलियों में आमना सामना होता तो जैसे रंगों से मार ! मुहल्लों से गुजरते हुए हम उन मुहल्लों में रहने वालों खास कर छतों - मुंडेरों पर इकट्टी नारियों से होली खेलते । वे ऊपर से हम पर पानी डालतीं और हम नीचें से पिचकारियों की धार से वार करते । हम सारा दिन भींगते हुए होली खेलते और हमारा सफर बाज़ार पहुंचकर ख़त्म होता जहाँ सभी झूमता इकट्ठा होते। भंग का नशा अपनी पराकास्था पर होता । लोग एक दूसरे का कपड़ा फाड़ते , गले मिलते और होली गाते , " अंखियाँ भईल लाले -लाल , एक नींद सुते दे पतोहिया " या " जोगीरा सररर आ रा रा रा रा " जिसमे मजाक और अश्लील बातें होतीं ।

होली और झूमता के बाद कई दिनों तक नशे का शुरूर रहता और बदन -चेहरे पर रंगों की लज्ज़त । हम फिर इंतज़ार करते अगले साल की होली की ।। अब तो वह होली ही नहीं , उसकी यादों से होली मनाते हैं । गालिब का शेर याद आता है , " ....अब वो रानाईये ज़माल कहाँ , वो शबों - रोजों माहो साल कहाँ .....फिक्र्रे दुनिया में सर खपाता हूँ , मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ ।"


( होली की इन स्मृतियों को पुनर्जीवित करने में दाऊद नगर के मित्र प्रिय गणेश जी ने मदद की। मित्र संजीव ने भूले बिसरे शेरो को याद दिलाया । उन्हें धन्यवाद ! सबों को होली की शुभ कामनाएं ! )


Tuesday, 3 March 2009

मगही भाषा में फारसी उर्दू की चासनी

मगही और उर्दू कहें या के फारसी ,का अद्भूत मिश्रण मगध क्षेत्र के लोक जीवन में मिलता है.
मगध क्षेत्र इस्लाम के हिन्दुस्तान के प्रारंभिक ठिकानों में से एक रहा है . मगध तेरहवीं सदी से लेकर सोलहवीं सदी तक सूफी संतों का ठौर रहा .इस काल खंड में पाली अपना रूप क्रमशः बदलते हुए मगही का रूप अख्तियार कर रही होगी .इसी दौर में फारसी के चासनी भी लग रही होगी

मैं एक शब्द बचपन से सुन रहा हूँ - गाली गुप्ता . अभी हाल में एक मित्र ने बताया की यह फारसी भाषा के शब्द " गाली- ये - गुफ्तगू " अर्थात " बात चीत गाली में " का तद्भव रूप है.
एक शब्द है बोकराती , जिसका प्रयोग अटपटी बात के सन्दर्भ में होता है .इस शब्द का सम्बन्ध महान दार्शनिक सुकरात से है. चूंकि उच्च या कुलीन वर्ग का दर्शन आम लोगों के लिए अनबुझ पहेली के तौर पर पर होता है तो सुकराती से बोकराती हो गया .सुकरात भी अनबूझ और अटपटी बात तो अटपटी ही है
पूरे मगही क्षेत्र में अंतिम संस्कार - चाहे हिन्दू का हो अथवा मुसलमान का - दोनों के लिए एक ही शब्द है - मट्टी मंजिल .
मगही में तो उर्दू ,फारसी शब्दों की भरमार है , पता नहीं मगध क्षेत्र की उर्दू में भी कुछ विशिष्ठता है क्या ?पिछले पांच छः दशकों की कुनबापरस्ती या कहें तो अलगाव ने मगह की खास संस्कृति पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचने ,समझने और लिखने में बाधा पन्हूंचायी.

प्रशासक मनीषी ग्रिएर्सन , जो गया के कलेक्टर थे ,ने अपनी किताब -पीजेंट लाइफ ऑफ़ बिहार (1885) में अद्भूत शोध कार्य किया .लेकिन हम उस शोध परम्परा को आगे नहीं बढा पाए.सामूहिक विरासत को धर्मं और जाति के खांचे में देखने लगे .
मगध एक मायने में फल्गु , पुनपुन और दरधा नदियों के द्वारा सींची और कहें तो सदियों से पाली गयी है . इतिहास कार मगध साम्राज्य के उदय में राजगृह और निकटवर्ती पहाडियों में लौह अयस्क के भडार और धातु कला में मगध वासियों की कुशलता की निर्णायक भूमिका मानते हैं.धान की खेती इस क्षेत्र की मुख्य उपज रही है. और यह खेती , बर्षा और आहार -पईन , जोल की सिंचाई पर निर्भर रही है.
मगही में मानसून की बर्षा की मात्रा को बताने के लिए बहुत जीवंत दृश्यात्मक शब्दों का भंडार है.
उस दौर में मगही किसान मिलीमीटर में वर्षा नहीं मापता था.
1.सबसे कम बारिश - बून्दाबुन्दी या टपका टोइया
2.धुरी मारन ( धुल मरने भर )
3.ओहारी चलना - खपरैल घर की छत की टोंटियों से पानी की धरा बहना
4.हाल भर वर्ष - खेतों में इतनी नमी हो जाय की आसानी से हल चल सके.
5.एक अछार / दो अछार - एक या दो झोंक की वारिश
6.आरी पार करना - इतनी वर्षा की खेत में पानी भार जाय और मेड ( आरी ) पार कर जाय
7 .झपसी - झीनी झीनी वारिश, जो की मानसून के उत्तरार्ध में इस क्षेत्र में होती है
ढाई हजार सालों की गौरव पूर्ण सामूहिक विरासत के संरक्षण का तकाजा है की मगह क्षेत्र के लोक जीवन और भाषा का दस्तावेजी रिकॉर्ड तैयार किया जाय .
भाषा और उसके शब्दों के अंत के साथ हीं विरासत का अंत तय है.
मगही के शब्द और भावः सन्दर्भ ,विवेचना ,शोध और संकलन का आग्रह कर रहा है .