Sunday, 1 February 2009

दो बातें : एक ऐतिहासिक और एक सामायिक


घोड़ा साईं
daudnagar में एक मजार है जहाँ हिंदू और मुसलमान समान श्रधा से जाते हैं । यहाँ दो मजार हैं । एक नवाब साहेब का है और दूसरा उनके घोड़े का । नवाब साहेब दुश्मनों का मुकाबला करते हुए घायल हो गए थे। उनका वफादार घोड़ा उनके शरीर को वापस शहर ले आया । घोड़ा भी घायल हो गया था। दोनों शहीद हो गए और दोनों का मजार दो जगहों पर स्थापित हैं । घोड़ा साईं का मजार काफी मशहूर है और हरेक साल यहाँ उर्स होता है । लोगों का मानना है की वे सभी मुरादें पूरी करते हैं। कुछ साल पहले मै जब वहां गया था तो एक हिंदू ने मुझसे पूजा कराई। घोड़ा साईं का मजार धर्म से ऊपर धार्मिक सद्भावना का प्रतीक है और एक यह प्रतीक है वफादारी का वह भी एक जानवर का जो लोगों की नजरों में भगवन है ।
प्रस्तुतकर्ता sujit chowdhury पर 1:50 AM 0 टिप्पणियाँ

बड़े बाबु
यह सच्ची कहानी मैंने अपने दोस्तों को सुनाया करता था । बड़े बाबु एक बेरोजगार व्यक्ति थे । कायस्थ परिवार के थे इसलिए पढने लिखने का शौक था और जमीन थी तो शायद उन्होंने नौकरी की जरुरत नहीं समझी । चूँकि उनके पास समय ही समय था तो एक रूटीन में वो अपना समय बिताते थे। अखबार पद्गने का उनको शौक या नशा था । अखबार वो खरीदते नहीं थे । तक़रीबन दस बजे नाश्ता करके घर से निकलते और धीरे धीरे अपन वक्त काटते । कई जगह पड़ाव लगाकर आख़िर में नई शहर के बाजार में कामता के पान दुकान पर आते और देश दुनिया के ऊपर ( तब तक उन्ही की तरह कुछ रेगुलर लोग जो उसके दूकान पर उस समय बैठकी लगाते ) अपना विचार प्रकट कर वापस घर लौट जाते थे। उस समय बिहार में सिर्फ़ दो समाचार पत्र प्रकाशित होते थे , आर्यावर्त और प्रदीप । बड़े बाबु दोनों अख़बारों को काफ़ी डिटेल में पढ़ते थे शायद निविदा (टेंडर) पेज भी । मजे की बात तो यह थी की अपने कई पडाओं पर वो एक ही अखबार बार बार पढ़ते थे। शायद समय काटने के लिए यह जरुरी था । pahla पड़ाव था पंडित जी का घर । पंडित जी के यहाँ एक अखबार आता था और वह उनके दालान में उपलब्ध रहता था। शायद घर का कोई व्यक्ति पढ़े न पढ़े अखबार दालान की शोभा थी । बड़े बाबु की तरह कई लोग जो उनके यहाँ आते अखबार पढ़ते थे । पंडित जी काफ़ी बूढे हो चुके थे और आंखों की रौशनी जा चुकी थी। एक दिन की बात है बड़े बाबु रोज की तरह पंडित जी के यहाँ पहुँच गए और अखबार पढने लगे । पंडित जी झपकी ले रहे थे । थोडी कुछ देर बाद पंडित जी ने पूछा," का बड़ा बाबु , का समाचार है ? " बड़े बाबु ने कहा, " जी पंडित जी, अभी पढ़ी थी ।" थोडी देर बाद पंडित जी ने फिर पूछा, " का बड़ा बाबु कुछ समाचार तो बोला ।" बड़े बाबु ने फिर कहा, " जी पंडित जी अभी पढ़ी थी ।" थोड़ा समय और गुजरा और पंडित जी ने फिर पूछा " अरे बड़ा बाबु कुछ समाचार तो बतावा ।" बड़े बाबु ने फिर से कहा, " जी पंडित जी अबी पढ़ी थी कुछ होती तो बतैबी ।" पंडित जी के सब्र का काबू जैसे टूट गया । गुस्से से वे बड़े बाबु पर टूट पड़े ," एक घटा से पढ़ी था जे है से की सारा अखबार सादा है का ? "बड़े बाबु चुपके से निकल लिए और अपने अगले पड़ाव पर वही अख़बार फिर से पढ़ना शुरू किया जैसे कीच हुआ न हो और जैसे उन्होंने उस दिन का अखबार पढ़ा ही न हो । उनके दिनचर्या में कोई फर्क न आया , हाँ दूसरे दिन से वो पंडित जी के दालान में नहीं दिखे।
प्रस्तुतकर्ता sujit chowdhury पर 12:12 AM 0 टिप्पणियाँ

2 comments:

  1. सुजीत , जब मैं तुम्हारा पोस्ट देखा तो मुझे कितनी खुशी हुई इसको मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता हूँ .
    मित्र उत्साह दोगुना और आनंद कई गुना बढ़ गया .
    कल ही वीरू किसी और सन्दर्भ में कह रहा था की मित्र वो जो गम को आधा और आनंद को दोगुना कर दे.
    रही बात दाउद नगर और आस पास की , कुछ आप बीती और कुछ जगबीती की तो वो सब ,आप नहीं लिखेंगें तो कौन लिखेगा ?
    वहाँ के बारे में लिख कर एक अर्थ में हम मातृभूमि का ऋण चुकता कर रहें हैं .
    बचपन और किशोरावस्था में स्म्रतियों और अनुभवों की जो हार्ड wiring हो जाती है उसे ही तो संस्कार कहते हैं और उसी के सारे देस या परदेश सब जगह काम चलाते हैं या यूं कहें की हमारा पार घाट उतरता है.
    "तेरी बांकी अदा पर मैं हूँ फिदा -------- बयान क्या करुँ ?" नौटंकी वाली कहानी भी लिखना.

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  2. कौशल सर,
    जो बात आपने जेएनयू के बारे में कही है वही मैं आपके ब्लॉगस के बारे में कहना चाहूँगा.
    आपके ब्लॉग पर यदि न आता तो सचमुच "कुछ" से वंचित रह जाता.
    यह "कुछ" पता नहीं क्या है. शायद "अपनी मिट्टी की खुशबू जो आपके ब्लॉग पर आकर मिली.
    आपका योगदान सचमुच सराहनीय है. आप अभी कहाँ कार्यरत हैं?

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