Friday 2 April 2010

मेरे गाँव की नयी सड़क और पैदल यात्रा का रोमांस

मेरे गाँव की नयी सड़क और पैदल यात्रा का रोमांस




मेरा गाँव खरभैया, पटना जिले के पूर्व और दक्षिण में , पटना से लगभग बीस किलो मीटर की दूरी पर स्थित है. गुजरे जमाने की अगर बात करें तो तो फतुहा मेरे इलाके का निकटतम बाजार रहा है जो मेरे गाँव से उत्तर पूर्व में तक़रीबन 12 -14 किलोमीटर की दूरी पर गंगाजी के तट पर स्थित है .ब्रिटिश हुकूमत ने 1865 -70के बीच पटना को कलकत्ता और दिल्ली से सीधे रेलमार्ग से जोड़ दिया था. हिन्दुस्तान की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता से रेल द्वारा बने इस सीधे संपर्क ने इस इलाके के आम लोगों को एका -एक बाहरी दुनिया से जोड़ दिया.जिस किसी का गाँव की जिंदगी और व्यवस्था से मन उचटा वह सीधा फतुहा से हावड़ा ( कलकत्ता ) की गाडी पकड़ता था.रेल संपर्क ग्रामीण समाज में अवसरों की सौगात लेकर आया . कलकत्ता शहर औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का केंद्र था और मगध से आये भांति भांति के लोगों के लिए तरह तरह के मुकाम तय कर रहा था. चतुराई , साहस और उद्दमिता के बदौलत , कलकत्ता और बंगाल के कमाई से रंक से राजा बनने के ढेरों उदाहरण हुए. बंगाल की कमाई ने पारंपरिक व्यवस्था में बुनियादी बदलाव लाये . एकाध पीढ़ी में हीं आम रैय्यत और यहाँ तक की विपन्न आर्थिक स्थिति से निकल कर लोग बाग़ जमींदारों की श्रेणी में आ गए.

मगध और खास कर पटना ( नालंदा सहित ) जिला धान और दलहन ख़ास कर मसूर की खेती के लिए मशहूर रहा है. फतुहा और बाढ़ ,पटना के पूरव में पहले गंगाजी के नदी मार्ग से और बाद में नए रेल मार्ग से अनाज व्यापार का स्थापित केंद्र रहा है. रेल मार्ग ,कलकत्ता - बंगाल की कमाई और मगध की ततकालीन व्यवस्था के घाल मेल में लोगों को ऊपर उठने का मौका मिला.1870 से लेकर 1947 तक का समय इस इलाके में काफी बदलाव का समय था.औपनिवेशिक शासन के इस दौर में ,यहाँ कई पोजिटिव चीजें हो रहीं थी.



मगध का अनाज -खासकर कई किस्म के चावल ( कलम दान , बाद्शाह्भोग, बासमती आदि ) तथा मसूर की छांटी कलकत्ता से लेकर ढाका तक भेजा जाता था.1923 में कलकत्ते की मार्टिन कंपनी ने फतुहा से इस्लामपुर , 42 किलोमीटर तक छोटी रेल लाईन ( नैरो गेज ) निर्माण किया. फलतः लोग और साज- सामान की ढुलाई और आसान हो गयी. 1923 से 1976 तक निर्बाध ढंग से निजी कंपनी की मार्टिन लाईट रेल सेवा चलती रही.छोटी लाइन की रेल सेवा पर भारत की आजादी का कोई असर नहीं पड़ा. जैसे गुलाम भारत में यह सेवा थी वैसी हीं आजाद भारत में . 1923 के मौनचेस्टर , इंगलैंड के बने भाफ इंजन से गाडी दुलकी चाल में चलती रही. 1976 में फल्गु और पुनपुन के बाढ़ ने छोटी लाइन की पटरी को सिन्गरिअवन और फतुहा के बीच बुरी तरह से बर्बाद कर दिया . ट्रेन सेवा ठप्प हुयी . तबतक मार्टिन कंपनी अपने बुरे दौर में थी . ट्रेन सेवा को बहाल करना तकरीवन दिवालिया हो चुके उस कंपनी के बस की बात नहीं थी. 1980 में भारत सरकार ने इस रेल सेवा को अपने अधीन लिया. रेल लाइन को पुनर स्थापित किया और 1980 -81 में Eastern Railway के तहत छोटी लाइन की रेल सेवा पुनः शुरू हुयी. 1983 में फिर बाढ़ आई , पटरियां छतिग्रस्त हुयी और यह रेल सेवा बंद हो गयी. लेकिन 2003 दिसंबर में सरकार ने इस रेल मार्ग को बड़ी लाईन में तब्दील किया और पटना कलकत्ता में रेल लाइन में जोड़ कर रेल सेवा को पुनः बहाल कर दिया. अब आप चाहें तो इस्लामपुर , हिलसा या दनियावां में मगध एक्सप्रेस में बैठें और सीधे दिल्ली में उतरें. ऐसा लगता है की अगर ब्रिटिश काल में फतुहा -इस्लामपुर मार्टिन लाईट रेल मगहिया चावल और मसूर छांटी दाल कलकत्ता भेजने के लिए बनी थी तो इस दौर में मगहिया कुशल और अकुशल श्रमिकों को उतारी भारत खास कर दिल्ली भेजने के लिए बनायीं गयी है.

गाँव से बस अथवा ट्रेन पकड़ने के लिए सिन्गरिआमा या दनिआमा तक की तक़रीबन पांच से छः किलो मीटर की दूरी पैदल पार करने के अलावा उपाय कोई और उपाय अभी तक नहीं था.

फतुहा इस्लाम पुर मार्टिन रेल लाइन के बनने से लेकर आज तक तक़रीबन नब्बे सालों से हम सब पांच किलोमीटर पैदल चल कर ट्रेन या बस पकड़ते रहें हैं. इलाके के लोग अभी तक कच्ची सड़क से भी मरहूम रहे. पढ़े लिखे लोग अक्सरहां कहते थे की दुनिया चाँद पर पहुँच गयी पर हम लोग बैलगाड़ी युग में भी प्रवेश नहीं कर पाए हैं. लोगबाग पैदल , नयी बहु डोली पर , मुसीबत में बूढ़े और बीमार खटिया पर और सामान बैल और भैंसे के पीठ पर ( pack bullocks ).
बरसात में नदी और पईन पार करने का बखेड़ा अलग से.

पांच किलोमीटर के इस रास्ते को पार करने में पूरा घंटा भर लग जाता था. अगर साथ में बच्चें हों तो डेढ़ घंटा भी लग सकता था.यह अलग बात है की आते - जाते सहयात्री जरूर मिल जाते. गाँव गिराम के तमाम किस्से कहानियों के साथ. सुबह में सिन्गरिआमा स्टेसन जाने में मुंह पर तेज धुप पड़ती तो शाम में स्टेसन से घर आते तेज पछिया हवा और चेहरे पर बेरकी की धुप. न सबेरे चैन न शाम को आफियत .सड़क की आस में पीढियां गुजर गयीं. बरसात में और बुरा हाल होता था . रास्ते में नदी के तेज बहाव से अगर खान्ढ़ ( breach in the traditional embankment ) हो जाए तो तब तो आफत नहीं जुलुम हो जाता था.बूढ़े , बच्चे , महिलायें कैसे पार पाती होंगीं ?.लगता है के भगवान् बुद्ध से लेकर आज तक मगध के अधिकतर इलाकों में , ग्रामीण क्षेत्रों में ,आवा- गमन और यातायात की बुनियादी सुविधायों में शायद हीं कोई तबदीली आई है.पांच किलोमीटर के इस रास्ते को दुरूह कहना अंडर statement लगता है.

बिहार में नए निजाम ने मेरे गाँव और इलाके पर मेहर बानी की और सिन्गरिआमा से सीधे खरभैया तक सड़क बनाना शुरू किया है. सिर्फ साथ दिनों में गाँव तक मिटटी का काम हो गया है.ऊपर में ( टॉप surface ) तीस फीट की चौडाई है .छोटी कार को छोड़ सब तरह की गाडी और ट्रक्टर इस अर्ध निर्मित सड़क पर दौड़ाने लगी है. खरभैया से सिन्गरिआमा- दनिआमा तक सबेरे शाम नियमित ट्रेकर / जीप सेवा शुरू हो गयी है . भांति भांति के सामान लादे ट्रैक्टर इस सड़क पर दिन भर दिखाते है. मेरे गाँव वासियों की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं है. ऐसा लगता है की लोग बाग़ बिल वजह फतुहा , दनिआमा की सैर करने लगें हैं. मेरा पूरा गाँव मोबाइल हो गया है.


लेकिन पांच किलोमीटर की इस अनिवार्य यात्रा से मुक्ति तो जरूर मिलगयी है. लेकिन कई चीजें खो गयी हईं हैं.

पैदल आने जाने में राह चलते गाँव जेवार के लोगों से मुलाक़ात हो जाती थी. कुशल छेम से लेकर शादी व्याह तक की बातें होती थीं. शाम होते होते इलाके भर में बात फ़ैल जाती थी की कौन परदेशी अकेले घर आया है की बाल बच्चों के साथ आया है. स्टेसन से तक़रीबन घर तक घंटे भर की पैदल यात्रा में , कल्पना करें सहयात्री से कितने तरह की बातें हो सकती हैं. घंटा डेढ़ घंटे की यह पैदल यात्रा आपकी शायद ही कोई बात हो जिसे निजी रहने देती थी.प्रणाम पाती कुशल क्षेम का दौर रास्ते भर चलता रहता क्योंकि लोग बाग़ मिलते रहते.

अब तो आप जिससे मिलना चाहें उसीसे मुलाक़ात होगी बशर्ते की सामने वाला भी मिलना चाहे और उसे पटना फतुहा जाने की जल्दी न हो.

गाड़ियों में बंद लोग राह चलते एक दूसरे से नहीं मिलते. रास्ते के मोड़ , नाव से नदी पार करने का स्मरण, टिमटिम बारिश , झपसी , रास्ते में अंधड़ –पानी, रास्ते भर की गुजरे जमाने की यादें . अब जब पैदल पांच किलोमीटर चलने की अनिवार्यता ख़तम हो गयी है तो पैदल रास्ते का रोमांस और अब सड़क बनाने से उस रोमांच से स्थायी रूप से वंचित होने गम अक्सरहां रातों में मेरी नींद उड़ा देता है.

7 comments:

  1. आपकी पोस्ट पढ़ कर रोमांच तो खूब आया मजा भी आया मगर रोमांस का कही दूर दूर तक पता नहीं मिला

    पोस्ट की हेडिंग पढ़ें :):):)

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  2. मैं भी इसी चक्कर में पढ़ता चला गया...रोमांस शायद आप रोमांच को लिख गये. कई बार इन दोनों शब्दों में तो लोग जीवन भर कन्फ्यूज रहते हैं. :)

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  3. बहुत बढ़िया!
    जानकारी के लिए धन्यवाद!

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  4. बहुत सुन्दर लेख ! विशेष रूप से फतुहा-इस्लामपुर रेलवे का इतिहास सूचनापूर्ण और रोचक है ।

    सुझावः आप लेख तो अच्छा प्रस्तुत करते हैं परन्तु इसके लिए आपके द्वारा प्रयुक्त साधन ठीक नहीं है । जब तक आप हिन्दी को सीधे देवनागरी में टाइप न करके उसे रोमन में लिखकर फिर देवनागरी में लिप्यन्तरित करने की आसान विधि अपनाएँगे तब तक "सिन्गरिअवन", "सिन्गरिआमा", "खान्ढ़" जैसे हास्यास्पद शब्द आप अपने लेख में घुसाते रहेंगे ।

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  5. कौशल जी मै अपकी भावना का कद्र करता हूं, लेकिन परेशानी यह हैं कि फोटो हटाने के प्रयास में ब्लांक का बाकी हिस्सा भी मुख्य पेज से हट जाता हैं।दो तीन मित्रो से सलाह लिया लेकिन ऐसा नही हो पा रहा हैं।कृप्या आपसे आग्रह का हैं ब्लांक पर अंकित फोटो को हटाने का तरीके मुझे लिख भेजेगे।आप की भवनाओ पर ठेस पहुचा इसके लिए मैं शर्मिदा हूं।निरुपमा प्रकरण के बाद आपसे बात करुगा। वैसे मुख्यमंत्री के ब्लांग पर आपने अपने गांव में हो रहे विकास कार्य के बारे में जो लिखा हैं उसके बारे में, मैं पटना डीएम से बात किया हूं वैसे इस प्रकरण के बाद आपसे मिलने का भी प्रयास करुगा।

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  6. नमस्कार ! आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं.चकित कर देहलीन्ही ,कभियो हम्मर दुआरिया भी आये के चाहि.
    जय मगध राज जय मगही

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  7. नमस्ते.. बहुत दिन बाद कुछ बढ़िया पढने को मिला है.. मैं हमेशा आप का ब्लॉग्स पढता हूँ.. काफी बढ़िया लिखते हैं आप.. फतुहा - इस्लामपुर छोटी लाइन के इतिहास के बारे में जानकार अच्छा लगा.. उम्मीद है आगे भी ऐसी रोचक चीजें पढने को मिलती रहेंगी.. बहुत बहुत धन्यवाद.. !!

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