Monday 14 September 2009

मगध की अद्भुत पारंपरिक सिंचाई व्यवस्था : आहर - पईन - जोल

मगध क्षेत्र की ऐतिहासिक सांस्कृतिक गौरव और इसके अविछिन्न इतिहास का आधार इस इलाके की अद्भुत सिंचाई व्यस्था रही है.फल्गु , दरधा और पुनपुन मगध क्षेत्र की ये तीन मुख्य नदियाँ हैं. दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहमान ये नदियाँ कई शाखायों में बंटती हुयी ( दरधा फतुहा के समीप पुनपुन नदी में मिल जाती है ) गंगा में मिलती हैं. बराबर पहाड़ के बाद फल्गु कई शाखयों में बँट कर बाढ़ - मोकामा के टाल में समा जाती है . बौद्ध काल से हीं मगध वासियों ने सामुदायिक श्रम से फल्गु ,पुनपुन आदि इन नदियों से सैंकडों छोटी -छोटी शाखायें निकाली जिससे की बरसात में पानी कोसों दूर खेतों तक पंहुचाया जा सके . सामुदायिक श्रम से वाटर हार्वेस्टिंग की एक अद्भुत विधा और तकनीक का विकास ,सह्स्त्रवदियों से इस इलाके में होता रहा ,जो की ब्रिटिश शासन तक चालू रहा.फल्गु /पुनपुन के जल से आहर -पईन - जोल वाली विधा ने धान की खेती पर आधारित वह अर्थव्यस्था तैयार की जिसने मगध साम्राज्य , बौद्ध धर्म के उत्कर्ष ,और पाल कालीन वैभव और संस्कृति को जन्म दिया . सिंचाई की इस विधा की विकास प्रक्रिया ब्रिटिश हुकूमत के प्रारंभिक काल - परमानेंट सेटलमेंट - तक कम से कम चलती रही .औपनिवेशिक शासन काल में इस व्यवस्था में ह्रास शुरू हुआ और आजादी के बाद तो यह व्यवस्था अनाथ हो गयी. नए दौर की नयी हुकूमत , संवेदनहीन नौकरशाही और नये जमाने की सिविल इंजीनियरिंग ने इस कारगर सिंचाई व्यवस्था की ऐसी तैसी कर दी. मगध के ग्रामीणों की सुध बुध लेने वाला कौन था ?

मगध की इस ऐतिहासिक आहर - पईन - जोल की सिचाई विधा पर समुचित शोध अब तक नहीं हुआ है. नदी से चौडी मीलों लम्बी आहर खोदी जाती थी. आहर कई गाँव की धान के खेतों की सिंचाई की जरूरत को पूरा करती थी.आगे चल कर आहर छोटे छोटे चैनल्स में बाँट दी जाती थी .इन छोटी शाखायों को पईन कहते थे. आहर और पईन खोदते समय निकली मिटटी से अलंग बन जाता था जो की अतिवृष्टि में बाढ़ का सामना करने में सहायक होता था. भूक्षेत्र के केंद्र में गाँव और गाँव के चारों तरफ समतल मैदान में खेत ,मगध के ग्रामीण बसाहट की विशेषता है. मगध में खेतों के बड़े समुच्चय ( ५० से १००/२०० एकड़ रकबे ) को एक खंधा कहा जाता है. हर खंधे का अलग नाम होता है- मोमिन्दपुर, बर्कुरवा, धोबिया घाट , सरहद , चकल्दः , बडका आहर ,गोरैया खंधा आदि . समझने के लिहाजन खंधे को आयताकार क्षेत्र के रूप में लिया जा सकता है. अक्सरहां खंधे की चौहद्दी पर चौडी मजबूत अलंग , अलंग से सटे आहर - जिसमें नदी का पानी बड़े आहर से आता है. अलंग में पुल की व्यवस्था जिससे की जरूरत के मुताबिक खंधे में पानी लिया जा सके . खंधे के भीतर चौडे आहर , पतले पईन में बँट जाती है. पतली पईन नदी के पानी को खेत तक पन्हुचाती है.पईन में थोडी दूर पर करिंग चलने के लिए अन्डास निर्धारित होता है. अन्डास पर खम्भा - लाठा से करिंग नाध कर हर खेत में करहा ( छोटी नाली ) द्वारा खेत की सिंचाई होती है.गया जिले के दक्षिणी इलाके में हदहदबा पईन, कहते हैं की एक सौ आठ गाँव की सिंचाई करती है. बरगामा नामधारी पईन ( ऐसा पईन जो बारह गाँव को सिंचित करे ) तो लगता है की मगध के हर क्षेत्र में है.
जोल सिंचाई की इस व्यवस्था का अहम् हिसा रहा है. खंधे के नीचले हिस्से को जोल कहा जाता है. जोल एक तरह से खंधे की सिंचाई की जरूरतों को पूरा करने के लिए एक reservoir ( छिछला जलाशय ) है. अलंग से सटा आहर ( चौडे आहर को खई भी कहते हैं ) और उससे सटे निचले खेत जोल का हिस्सा माना जाता है. जोल को खंधे का पानी का खजाना भी कहते हैं और इसमें धान की लम्बी और गहरे पानी को सहने वाली प्रजातियाँ लगायी जाती हैं. .खंधे के ऊँचे खेतों में तो धान की रोपनी होती है पर जोल में असाध माह में हीं बिचडे खेत जोत कर छींट दिए जाते हैं. धान की खेती के इस तरीके को बोगहा कहते हैं और बोगहे की खेती अगात ( शुरुयात ) खेती मानी जाती है. बोगहा की खेती में दर- मन ( प्रति एकड़ उपज )कम होता है अतः किसान इसे मजबूरी की फसल मानते हैं.


आहर - पईन - जोल वाली सिंचाई व्यस्था के संदर्भ में छालन और गुयाम - इनको समझना जरूरी है. छालन सिंचाई की वह व्यवस्था है जिसमें नदी का पानी आहर , आहर से पईन होता हुआ करहों ( छोटी-छोटी नालियों द्बारा ) सीधे धान के खेत में पंहुच जाता है.जैसे हीं धान के खेत में पानी पर्याप्त हुआ खेत में आने वाले करहे को बंद कर दिया जाता है.और इस तरह नदी का पानी बिना विशेष मेहनत के हर खेत में पहुँच जाता है. खंधे में पानी प्रयाप्त होने पर पुल का मुंह बंद कर दिया जाता है. छालन की इस व्यवस्था में नदी का पानी ,जमीन के स्वाभाविक ढलान या स्लोप से स्वतः पईन और करहों से होता हुआ खेतों तक पंहुच जाता है. लाठा कुण्डी, करिंग अथवा डीजल सेट की जरूरत नहीं पड़ती है. हर गाँव में कोई न कोई खंधा जरूर ऐसा है जिसके खेतों की सिंचाई छालन से हो जाती है.

गुयाम - सामुदायिक श्रम की एक व्यवस्था है जिसमें गाँव का हर आम-ओ -खास जरूरत पड़ने पर नदी में बाढ़ आदि की परिस्थिति में अलंग / तटबंध की सुरक्षा रात दिन करता है. गुयाम आपात परिस्थिति में आपसी सहयोग और समन्वय का एक अद्भुत उदहारण है.

उपर्युक्त विवरण को मगध की इस ऐतिहासिक आहर -पईन - जोल आधारित सिंचाई व्यस्था का एक प्रारम्भिक स्केच समझा जाय.
इस सिंचाई व्यस्था के कई सामजिक और सिविल इंजीनियरिंग पहलु हैं जिसकी समीक्षा और नए दौर की जरूरतों के अनुसार पुनर्स्थापित करने की जरूरत है.यह कहने की जरूरत नहीं की बिहार के विकास के लिए मगध क्षेत्र का विकास तथा मगध क्षेत्र के विकास के लिए कृषि और ग्रामीण विकास अनिवार्य है . और इस इलाके के कृषि के विकास की शर्त यह है की इस इलाके की पारंपरिक सिंचाई व्यस्था को बहाल किया जाय .

Wednesday 9 September 2009

मगध में समेकित जल प्रबंधन - बाढ और सुखाड़ से निजात कब मिलेगा ?

बिहार के सन्दर्भ में बाढ़ की चर्चा अक्सर होती है. गत वर्ष की कोशी की भयावह बाढ़ की स्मृति अभी शेष है और कोशी अंचल उस प्रलय के पुनरागमन की आशंका से अभी नहीं उबरा हैं. पर बिहार और बाढ़ की चर्चा के दायरे में मगध क्षेत्र की बाढ़ और सुखाड़ की सालाना त्रासदी कभी चर्चा और सरकारी उद्दयम का केंद्र विन्दु नहीं बन पाता है. इस इलाके ( खास कर जहानाबाद , नालन्दा और पटना जिले के दक्षिणी इलाके ) के करोडों बदहाल ग्रामीण इस सालाना त्रासदी को अपनी नियति मान बैठे हैं.

हलाँकि इस साल अतिवृष्टि की वजाय अनावृष्टि का प्रकोप बिहार में ज्यादा रहा है. बिहार के किसान - खासकर मगध के - इस साल के सुखाड़ की तुलना सन १९६७ ( अकाल साल के रूप में जन मानस में जीवित ) के भयानक सूखे और अकाल से तुलना कर रहें हैं.फल्गु, पुनपुन और इनकी सहायक नदियों में आसीन ,माह तक इतना कम पानी ,चालीस- पचास साल में कभी नहीं आया .धान की रोपनी काफी कम हुयी. जैसे -तैसे डीजल सेट से मोरी को जिंदा रखा गया. असीम जीवट वाला मगही किसान बर्षा की उम्मीद में महंगे डीजल से धन रोपनी किया . लेकिन पुरे सावन भादो में कभी इतनी बारिश नहीं हुयी की धान की फसल के लिए प्रयाप्त हो जाए.बहुत इलाकों में वर्षा के अभाव में धान की फसल कड़ी धुप में जल गयी.

लेकिन मौसम का मिजाज देखें ,इधर पिछले सात दिन से कमो वेश पुरे मगध में झीनी झीनी
वर्षा ( झपसी ) हो रही है . धान के खेतों में काम लायक पानी हो गया है.जिन खेतों में धान की रोपाई नहीं हो पायी वहाँ अगात भिठा ( रब्बी फसल ) की तैयारी के लिहाजन भी यह झपसी फायदेमंद है.पिछले साल भीइस इलाके में बाढ़ का प्रकोप रहा था. सैकडो गाँव जलमग्न रहे . धान की फसल बाढ़ में बर्बाद हो गयी. अलंग और नदियों के सुरक्षा तटबंध ध्वस्त हो गए . सरकारी राहत जरूरत मंदों के बीच जरूर वितरित हुआ. किसानों को सोलह हजार रुपये तक फसल बीमा के तहत सरकारी सहायता भी मिली. राहत का अपना महत्व है और सरकारी राहत ने बाढ़ पीड़ित जनता का दुःख दर्द निसंदेह कुछ कम किया .पर बाढ़ का दंश सरकारी सहायता से आगे तक मारक असर करता है.

२००६ और २ ००७ में भी मगध क्षेत्र का यही हिस्सा बाढ़ से प्रभावित था .धन और आजीविका की व्यापक क्षति इस इलाके में लगातार चार - पांच सालों से हो रही है. लगातार बाढ़ और इस साल आसाढ़ ,सावन और भादो में सुखाड़ - त्रासदी से यह इलाका उबर नहीं पा रहा है.कल परसों से अचानक फल्गु ,पुनपुन और इन दोनों की सहायक नदियाँ और शाखाएं पुरे उफान पर है.नदियों का पानी इन के डूब क्षेत्र में फैलने लगा है. नदी तटबंधों पर पानी का भरी दबाव है . छोटानागपुर और हजारीबाग -इन नदियों के जल संग्रहण क्षेत्र -में अगर और वर्षा होती है या तट बन्ध टूटते हैं तो पुरे इलाके में बाढ़ की आशंका है. हलाँकि अखबारों की शुरुयती रपट सैंकडों गाँव में फ्लैश फ्लड की बात कह रही है.

बिहार में विकास और आधारभूत संरचना के निर्माण की चर्चा , नीति निर्धारण और कार्यान्वयन में मगध क्षेत्र में ठोस दृघ्कालीन जल प्रबंधन की बात अब तक नहीं आई है.फल्गु , पुनपुन और इनकी सहायक नदियों और शाखायों में बरसाती पानी के समेकित प्रबंधन की जरूरत है.बिना इसके इस क्षेत्र के तीन करोड़ लोगों का जीवन खुशहाल नहीं बनाया जा सकता है.सनद रहे की मगध की इसी उर्वर भूमि ने वह आर्थिक आधार मुहैया किया जिसकी गोद में महान मगध साम्राज्य का उदय हुआ. जरूरत इस बात की है की इस इलाके की परम्परगत आहार -पयैन और जोल वाली व्यवस्था को नए सिरे से, नए जमाने की जरूरत के लिहाजन - सिविल इंजीनियरिंग की नवीनतम विधा और तकनीक का इस्तेमाल करते हुए पुनर्स्थापित किया जाय.

पर आसन्न चुनौती यह है की बिहार की वर्तमान राजनीति और शासन व्यवस्था में मगध के जीवन मरण के इस प्रश्न को कैसे लाया जाय ?