Monday 23 February 2009

पटना में डॉ अमर्त्य सेन - स्वर्णिम अतीत की गाथा और भविष्य की गुन्जायीश

अमर्त्य सेन बिहार के भूत, वर्तमान और भविष्य पर अपने संबोधन में इस राज्य के बदहाल वर्तमान की तुलना राज्य के मौर्य युगीन गौरव पूर्ण अतीत से करते हैं ।
मगध की भूमि ने वह राजनैतिक विधा , सामरिक कौशल ,निपुणता और पौरुष को जन्म दिया जिसने मगध साम्राज्य की सीमा को दूर अफगानिस्तान ,इरान सीमा तक पंहुचा दिया ।मगध की ताकत के आगे सिकंदर महान की मगध साम्राज्य पर आक्रमण और जीत की योजना धरी की धरी रह गयी और उसका विश्व विजेता बनने का सपना अधुरा ही रह गया ।
मगध साम्राज्य की कीर्ति पताका सुदूर दक्षिण को छोड़ कर भारत ,अफगानिस्तान और इरान की सीमा तक लहरा रही थी।कोई सौ पचास साल नहीं बल्कि सदियों तक .
आज तक के इतिहास में भारत और इसके लोग इतने बड़े साम्राज्य की पुनर स्थापना नहीं कर पाये है।
इतना बड़ा भूगोल भारत का फिर कभी नहीं हो पाया।
इस गौरवशाली स्वर्णिम अतीत की तुलना जब बदहाल वर्तमान से करते हैं तो निराशा वाजिब है।
आख़िर मगध की परवर्ती संतानों ने बाद में और खास कर पिछले सौ दो सौ सालों में ऐसा क्या किया और क्या नहीं किया की आज इस बदहाल स्थिति में ख़ुद को पाते हैं।
ऐसी वो कौन सी बातें जो मराठों में , गुजरातियों में या पंजाबियों में है पर बिहार और बिहारियों में नहीं है ?
क्या कुछ घटा पिछले सौ दो सौ सालों में जिस का फल वर्तमान बिहार भोग रहा है।
या फिर इतना पीछे जाने की भी जरूरत है क्या ?
पिछले पच्चास सालों में ऐसा क्या और राज्यों में हो रहा था जो बिहार में नहीं हो रहा था ?
या जो बिहार में हो रहा था वो और राज्यों में नहीं हो रहा था ?
सुधिगन कहते हैं की आप जातिगत संसदीय राजनीति के दल दल में फंसे थे ।
यूँ तो आखरी बिहारी , जिसके माथे राजमुकुट था ,वह शेरशाह सूरी अपने पाँच साल के शासन में राज्य काज की सुद्रढ़ व्यवस्था तमाम सैनिक युध्हों को फतह करते हुए किया .पर बाद के दिनों में बिहार में रजा के नाम पर सिर्फ़ मातहत , नौकर , दलाल ही अपने आप को राजा कहते और कहलाते रहे।
अंग्रेजों की गुलामी की ।
जब देश स्वतंत्र हुआ और खुदमुख्तारी का मौका आया तो देखिये इतिहास गवाह है अपने चहरे पर कालिख पुत्वाते रहे ।जात पात और भाई भातीजबाद को राज काज बताते रहे
तीन हज़ार साल की बौधिक श्रेष्ठता की डींगें हांकी जाती रहीं।
कमजोर लोगों के साथ वो किया जो की अंगेरजी राज में भी नहीं हुआ .
झूठा मुठा इतिहास लिख कर भूत को वर्तमान की जरूरतों के हिसाब से गढ़ते रहे ।
शेखी बघारने और कुछ जगहों में चाटुकारिता को सभ्यता और संस्कृति की पराकाष्ठा का दंभ भरते रहे.
बिहार और बिहारियों को उपहास और घृणा का पात्र बना दिया .
विद्वान कहते हैं बिहारियों ने अपने यहाँ भूमि सूधार नहीं किया ।
शिक्षा के प्रचार प्रसार के नाम पर कालेजों और यूनिवर्सिटी यों को जातिगत गिरोहों के हवाले कर दिया ।पटना के एक संस्थान में उन दिनों निदेशक से लेकर चपरासी तक एक हिन् जाती और उसमें भी क्षेत्र विशेष के लोग भर दिए गए .
हर जान कार बिहारी जानता है की एक समय में विभागाध्यक्ष का बेटा /बेटी ही उस विषय में टॉप करते थे ।
और क्या अब स्थिति बदल गयी है ?
यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है हमने , दूर की बात छोडें , पिछले साठ सालों में क्या किया ?

Friday 20 February 2009

दाऊद नगर का किला ( दाऊद नगर ,औरंगाबाद ,बिहार - पुरातत्व विभाग के तथ्य

(सुजीत चौधरी द्वारा प्रेषित लेख - दाऊदनगर पर पुरातत्व विभाग के तथ्य , कुछ तकनीकी वजहों से इसे देवनागरी लिपि में नहीं दिया जा सका है )
Daud Khan Fort, Daudnagar, Aurangabad : Facts given by Archaeological Society Of India This fort is situated on the eastern bank of the Sone River and was founded by Dhaud Khan, a Governor of Bihar under Aurangzeb in the 17th of Palamu fort from the Cheros; and it is said that while back from this conquest he camped here and founded the town known after him। The surrounding area was also granted to him as a Jagir by the emperor। Early in the 18th century Buchanan saw it as a flourishing town with cloth and opium factories। The sarai built by Daud Khan was, perhaps really meant to be a stronghold; for it was well fortified with a battlemented wall, two large gates and a moat all around। It was called as a sarai probably to avoid jealousy of the Government। The sarai was in good condition till a few years before 1896; for the Bengal list says that the gates were regularly shut every night। Ahmad Khan, grandson of Dhaud Khan, fortified the town which was then named as Ghausipur। The town also contains an old mosque and another sarai built byAhmad Khan, which had mud gates। In the outlying part of the town called Ahmadganj is the tomb of Ahmad Khan।

दाऊद नगर में लोक उत्सव जितिया - मगही लोकजीवन का एक रूप

( जितिया मगध क्षेत्र का एक विशिष्ठ लोक उत्सव है .मित्र सुजीत चौधरी , अपने बचपन के दाऊदनगर का किस्सा सुना रहें हैं । दाऊदनगर और मगध के राग रंग पर इन्होने लिखते रहने का वायदा किया है। प्रस्तुत है उनका लेख )
जितिया : एक अनोखा त्यौहार
दाऊदनगर में काफी धूम धाम से मनाया जाता है जिसमे सभी लोग धर्म, संप्रदाय, जाति और आर्थिक वर्ग से ऊपर उठकर सम्मिलित होते हैं। जितिया वास्तव में जिमुतवाहन का पर्व है जो उत्तर और पूर्व भारत में मनाया जाता है। इस पर्व पर माताएं पुत्र जीवन के लिए पूजा करती हैं और पुत्रहीन माताएं भी पुत्र प्राप्ति के लिए पूजा करती हैं। यह त्यौहार दशहरा से पहले मनाया जाता है। यह पूजा अनंतचतुर्दशी से शुरू होती है और दस दिनों तक चलती है। पहले दिन, दाऊदनगर में चार या पॉँच जगहों पर ओखली (धान कूटने के लिए बनी लकड़ी की चीज) रखी जाती है और उसके पूजन से जितिया की शुरुआत होती है। सातवे दिन माताएं एक खास तरह के साग या दूब को पानी से निगलकर अपना उपवास तोड़ती हैं। ऐसा भी सुना है कि जिन माताओं के पुत्र बालावस्था में ही मर जाते हैं वे जीवित छोटी मछली निगल कर उपवास तोड़ती हैं। दाऊदनगर के जितिया का अनोखा पक्ष है की यहाँ के बच्चे और युवा ' नक्कल' बनते हैं। नक्कल मतलब भेष बदलना और पूरे शहर में नक्कल बनकर घूमना। नक्कल बनना उनके लिए अनिवार्य होता है जिनका जन्म जिमुतवाहन के आशीर्वाद से हुआ हो। मगर जितिया में (मैं अपने बचपन यानि कम से कम तीस साल पहले कि बात बोल रहा हूँ) शहर के काफी लोग नक्कल बनते थे और जहाँ देखिये नक्कल ही नक्कल। आपने गोवा के कार्निवल के बारे में सुना होगा , कुछ वैसा ही। नक्कल कि उत्पति में कोई जनजातीय परम्परा नहीं है क्योंकि दाऊदनगर में कोई जन जाति नही है। जितिया के समय सामाजिक बंधन ढीले हो जाते हैं और सामाजिक सांस्कृतिक वर्जनाएं नहीं रहती। कोई किसीसे से भी मजाक कर सकता है या किसीका भी मजाक / मखौल उदा सकता है। सब मान्य है। नक्कल के विषय पारंपरिक और सामयिक मुद्दों से लिए जाते हैं यहाँ तक कि स्थानीय मुद्दे भी। पुरूष स्त्री रूप धारण करते हैं। जैसे मछली बेचने वाली या बाई स्कोप दिखने वाली। कोई नट बनता है तो उसका साथी नट्टिन। कोईसुल्ताना डाकू बनता तो कोई लैला की खोज में भटकता मजनू । कोई जोगी बनता तो कोई भिखारी। सड़कों और बाजारों में घुमते ये नक्कल दाऊदनगर के कुछ संभ्रांत लोगों के बैठक पर भी जाते जहाँ उन्हें बख्शीश मिलती। इन नक्कालों में दिल्ला काफी मशहूर था । वह एक गोरा चिट्टा नवजवान था और पेशे से मछलीमार था। वह स्त्री रूप धारण करता और लोग समझते कि वाकई वह एक औरत है। सुल्ताना डाकू एक बहुचर्चित पत्रथा। एक नक्कल सुल्ताना डाकू बनता और एक एक उसका साथी प्रधान सिंह। मुझे याद है , मेरे नाना डॉक्टर थे और सभी नक्कल हमारे बैठक में जरूर आते थे। हाँ एक चीज , सभी नक्कल खासकर बड़ी उम्र के शौकिया और अनुभवी नक्कल शराब जरूर पीते थे। नाना देशी शराब में कुछ मिलवाते थे जिससे उसका रंग पारदर्शी से बदलकर लाल हो जाता था। यह शराब नक्कालों के लिए हमारे बैठक में आने का एक खास आकर्षण था जो घर केनौकर बैठक से लगे छोटे कमरे में नक्कालों को पिलाते थे। मजनू जंजीरों में बंधा और फटे कपड़े पहने आता और जमीन पर अपना सर पटकता और गता ," लैला लैला पुकारूँ मैं वन में, मेरी लैला बसी है मेरे मन में।"इसी तरह सुल्ताना डाकू आता और उसके आने का संकेत था कई बम विस्फोट ! फिर वह आता और अपने प्रधान से पूछता ," प्रधान जी, यह डॉक्टर कैसा आदमी है?" प्रधान कहता, " यह डॉक्टर गरीबों का खून चूसता है और इसीसे काफी दौलत कमी है।" सुल्ताना अपनी बन्दूक कि नोक मेरे नाना जी कि तरफ़ उठता और कहता " डॉक्टर, अपने खजाने कि चाभी दे दे नहीं तो तेरी लाश बिच्छा दूँगा।" मैं बिल्कुल डरा नाना के पीछे खड़ा रहताऔर सोचता कि सचमुच यह नाना को मार देगा क्या? इसके बाद सुल्ताना और प्रधान मेरे नाना के पैर छु प्रणाम करते और पास वाले कमरे में रंगीन शराब पीने चले जाते।ऐसा होता था दाऊदनगर का जितिया। अब दस दिनों का यह आयोजन तीन चार दिनों में सिमट गया है। हाँ स्त्रियाँ अन्तिम दिन ओखली कि पूजा बिना किसी समस्या से कर सकें इसके लिए मोहल्ले के नक्कल लाल परी और कला परी बनकर उनके साथ रहते है। अब तो सुना है कि टीवी वाले भी इसका प्रसारण करते हैं।
सुजीत चौधरी , ( दाऊदनगर ) बंगलोर

Sunday 1 February 2009

दो बातें : एक ऐतिहासिक और एक सामायिक


घोड़ा साईं
daudnagar में एक मजार है जहाँ हिंदू और मुसलमान समान श्रधा से जाते हैं । यहाँ दो मजार हैं । एक नवाब साहेब का है और दूसरा उनके घोड़े का । नवाब साहेब दुश्मनों का मुकाबला करते हुए घायल हो गए थे। उनका वफादार घोड़ा उनके शरीर को वापस शहर ले आया । घोड़ा भी घायल हो गया था। दोनों शहीद हो गए और दोनों का मजार दो जगहों पर स्थापित हैं । घोड़ा साईं का मजार काफी मशहूर है और हरेक साल यहाँ उर्स होता है । लोगों का मानना है की वे सभी मुरादें पूरी करते हैं। कुछ साल पहले मै जब वहां गया था तो एक हिंदू ने मुझसे पूजा कराई। घोड़ा साईं का मजार धर्म से ऊपर धार्मिक सद्भावना का प्रतीक है और एक यह प्रतीक है वफादारी का वह भी एक जानवर का जो लोगों की नजरों में भगवन है ।
प्रस्तुतकर्ता sujit chowdhury पर 1:50 AM 0 टिप्पणियाँ

बड़े बाबु
यह सच्ची कहानी मैंने अपने दोस्तों को सुनाया करता था । बड़े बाबु एक बेरोजगार व्यक्ति थे । कायस्थ परिवार के थे इसलिए पढने लिखने का शौक था और जमीन थी तो शायद उन्होंने नौकरी की जरुरत नहीं समझी । चूँकि उनके पास समय ही समय था तो एक रूटीन में वो अपना समय बिताते थे। अखबार पद्गने का उनको शौक या नशा था । अखबार वो खरीदते नहीं थे । तक़रीबन दस बजे नाश्ता करके घर से निकलते और धीरे धीरे अपन वक्त काटते । कई जगह पड़ाव लगाकर आख़िर में नई शहर के बाजार में कामता के पान दुकान पर आते और देश दुनिया के ऊपर ( तब तक उन्ही की तरह कुछ रेगुलर लोग जो उसके दूकान पर उस समय बैठकी लगाते ) अपना विचार प्रकट कर वापस घर लौट जाते थे। उस समय बिहार में सिर्फ़ दो समाचार पत्र प्रकाशित होते थे , आर्यावर्त और प्रदीप । बड़े बाबु दोनों अख़बारों को काफ़ी डिटेल में पढ़ते थे शायद निविदा (टेंडर) पेज भी । मजे की बात तो यह थी की अपने कई पडाओं पर वो एक ही अखबार बार बार पढ़ते थे। शायद समय काटने के लिए यह जरुरी था । pahla पड़ाव था पंडित जी का घर । पंडित जी के यहाँ एक अखबार आता था और वह उनके दालान में उपलब्ध रहता था। शायद घर का कोई व्यक्ति पढ़े न पढ़े अखबार दालान की शोभा थी । बड़े बाबु की तरह कई लोग जो उनके यहाँ आते अखबार पढ़ते थे । पंडित जी काफ़ी बूढे हो चुके थे और आंखों की रौशनी जा चुकी थी। एक दिन की बात है बड़े बाबु रोज की तरह पंडित जी के यहाँ पहुँच गए और अखबार पढने लगे । पंडित जी झपकी ले रहे थे । थोडी कुछ देर बाद पंडित जी ने पूछा," का बड़ा बाबु , का समाचार है ? " बड़े बाबु ने कहा, " जी पंडित जी, अभी पढ़ी थी ।" थोडी देर बाद पंडित जी ने फिर पूछा, " का बड़ा बाबु कुछ समाचार तो बोला ।" बड़े बाबु ने फिर कहा, " जी पंडित जी अभी पढ़ी थी ।" थोड़ा समय और गुजरा और पंडित जी ने फिर पूछा " अरे बड़ा बाबु कुछ समाचार तो बतावा ।" बड़े बाबु ने फिर से कहा, " जी पंडित जी अबी पढ़ी थी कुछ होती तो बतैबी ।" पंडित जी के सब्र का काबू जैसे टूट गया । गुस्से से वे बड़े बाबु पर टूट पड़े ," एक घटा से पढ़ी था जे है से की सारा अखबार सादा है का ? "बड़े बाबु चुपके से निकल लिए और अपने अगले पड़ाव पर वही अख़बार फिर से पढ़ना शुरू किया जैसे कीच हुआ न हो और जैसे उन्होंने उस दिन का अखबार पढ़ा ही न हो । उनके दिनचर्या में कोई फर्क न आया , हाँ दूसरे दिन से वो पंडित जी के दालान में नहीं दिखे।
प्रस्तुतकर्ता sujit chowdhury पर 12:12 AM 0 टिप्पणियाँ

daudnagar

daudnagar औरंगाबाद जिले का एक क़स्बा है। इसका नाम daud खान से आया जो मुग़ल समय अथवा सूरी राज में सेना का अधिकारी था। कस्बे के पुराने इलाके में एक किला है । इस कसबे में एक मोहल्ला है जिसका नाम है पटना का फाटक । इसका मतलब है कि इसका इलाका सुरक्षा के वास्ते घिरा हुआ था । मैंने ब्रिटिश gazette में पढ़ा कि यह जगह दरी, पीतल के बर्तन और खेती के लिए मशहूर था। यहाँ मुनिसिपलिटी थी जो सौ सालों से भी पुरानी थी । कुछ सालों पहले जन गणना के मुताबिक इसका दर्जा मुनिसिपलिटी के लायक नहीं थी और यहाँ पंचायत समिति बन गई । ब्रिटिश शाषण के समय यहाँ नील (इंडिगो) और अफीम (ओपियम) के गोदाम थे । अभी भी यहाँ एक मोहल्ला है नील कोठी और अफीम कोठी ।। यहाँ का बाजार विकसित था । सोन नदी और गंगा नदी के बीच नहर बनाया गया था ब्रिटिश समय में जो यहाँ से गुजरता है । नहर से खेती विकसित हुई और कई जगह बिजली निकालने के लिए मिल लगे। इस बिजली से मेकनिकल काम किए जाते थे जैसे तिलहन से तेल निकालना अथवा गेहूं कि पिसाई । यहाँ के जनसँख्या में कुछ जातियों का ज्यादा संख्या में होना उनके पारंपरिक बाहुल्य को दर्शाता है जैसे कसेरा (कांसा या पीतल के बर्तन बनाने वाली जाती या पटवा जो मिटटी काटकर नहर बनाने थे) । ब्रिटिश समय में यहाँ शराब का गोदाम भी था। जब आजादी कि लड़ाई हुई तो लोगों नें गोदाम पर हमला किया । मेरी नानी बोलती थी कि कुछ लोगों ने १००% कांसन्त्रतेद शराब पी ली और मर गए। बाजार में विदेशी सामानों कि होली जलाई गयी । यह है कुछ शब्दों में daudnagar का परिचय ।
प्रस्तुतकर्ता sujit chowdhury पर 2:32 AM 0 टिप्पणियाँ